भ्रम और निरसन
मूल लेखक – डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, अनुवाद डॉ. विजय शिंदे
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,
प्रथम – 2018, मूल्य – 295, पृष्ठ – 152,
ISBN: 978-93-88183-58-1
देखेंगे जीत किसकी होती है?
हमारा देश विज्ञानवादी, आधुनिक और प्रगत होने का ढिंढोरा पीटता है,
लेकिन असल में हम अपने भीतर झांककर अपने आप से पूछे कि हम वैसे हैं? भारत के
दूर-दराज पिछडे इलाकों से लेकर महानगरों और मेट्रो सिटियों में जिस प्रकार के
भ्रम, अंधविश्वास फैले हैं तथा पाले जा रहे हैं वह हमारे विज्ञानवादी, आधुनिक और
प्रगत होने के दांवों पर कालिख पोत रहे हैं। शिक्षा पाने से कोई विवेकवादी बनता
नहीं है। सामान्य से असामान्य व्यक्ति तक का नजरिया अगर विवेकहीन है,
रूढि-परंपरावादी है, अंधविश्वासी है तो उसको बहुत बडी हानी पहुंच सकती है। अतः डॉ.
नरेंद्र दाभोलकर का जिंदगी के सारे चिंतन और सामाजिक सुधारों में यही प्रयास था कि
इंसान विवेकवादी बने। उनका किसी जाति-धर्म-वर्ण के प्रति विद्रोह नहीं था। लेकिन
षडयंत्रकारी राजनीति के चलते अपनी सत्ता की कुर्सियों, धर्माडंबरी गढों को बनाए
रखने के लिए उन्हें हिंदू विरोधी करार देने की कोशिश की गई और कट्टर हिंदुओं के
धार्मिक अंधविश्वासों के चलते एक सुधारक का खून किया गया। अर्थात बहुत दूर जाने की
भी जरूरत नहीं है, डॉ. दाभोलकर का ऐसे लोगों से खून किया जाना भी विवेकहीनता का ही
उदाहरण है। सत्य साईं, आसाराम, रामरहीम आदि पाखंडी लोग हमारे देश में स्थापित होते
हैं, करोडों रुपए की संपत्ति से किसी हनिप्रित के साथ बाप-बेटी के रिश्ते को ताक
पर छोडकर ऐयाशी की रासलीलाएं रचते हैं। यह किस प्रकार का धर्मप्रचार है? बडे-बडे
सेलिब्रेटी भी ऐसे पाखंडी बाबाओं के सामने बडी लिनता के साथ गिरकर चुमा-चाटी करते
हैं। सत्य साईं का एक अंध भक्त सचिन तेंदुलकर भी थे। क्या उन्हें पता नहीं था कि
ऐसे पाखंडी बाबा के साथ जुडकर भारतीय समाज में एक आदर्श व्यक्ति के नाते हम कौनसा
आदर्श रखने जा रहे हैं? ऐसे समय में बगले झांकना शुरू किया जाता है कि यह हमारी
निजी जिंदगी है, लेकिन कोई भी सेलिब्रटी और आम व्यक्ति इस बात को ध्यान रखे कि जिस
समय हमारा दहलिज के बाहर कदम पडता है और सामाजिक होते हैं तब हमारा निजत्व खत्म
होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा वर्तन हमेशा विवेक के साथ ही हो।
हमें देखनेवाली हजारों आंखे होती हैं और हमारे वर्तन का उन पर
जाने-अनजाने प्रभाव पडता है। ध्यान रहे कि हमारे अंधविश्वासभरी बातों को कोई फॉलो
ना करे और उसका नुकसान भी ना हो। हमारे देश में धर्म, जाति, वर्ण, देव-देवता,
रुढि-परंपरा, रहन-सहन, पहनावा आदि तमाम बातें निजी है, जरूर निजी है; इसका पालन भी
करें; लेकिन कहां? अपने घरों में। दरवाजें के भीतर। जब दरवाजें से बाहर सामाजिक
व्यक्ति के नाते हम कदम बाहर रखते हैं तब अपना सारा अविवेक घर में खूंटी पर टांग
दे, अल्मारी में बंद कर दे और विवेकवादी बनकर बाहर निकले। एक सामान्य बात बहुत अहं
है वह यह कि विवेकवादी बनने से हमारा लाभ होता है या हानि इसे सोचे। और जिस समय
हमें लगता है कि हमारा लाभ होता है उस समय इन रास्तों पर चले। दूसरी बात यह भी याद
रखे कि धर्माडंबरी, पाखंडी बाबा तथा झूठ का सहारा लेनेवाले व्यक्ति का अविवेक उसे
स्वार्थी बनाकर निजी लाभ का मार्ग बता देता है, अर्थात उसमें उसका लाभ होता है और
उसकी नजर से उस लाभ को पाना सही भी लगता है; लेकिन उसके पाखंड, झूठ के झांसे से
हमें हमारा विवेक बचा सकता है। अगर ऐसा हो तो अपने-आप पाखंडी बाबाओं की दुकानें
बंद हो जाएगी। हमारा समाज और देश विवेकवादी बनने के लिए तत्पर भी बन जाएगा। कल्पना
करें इन सारे पाखंडों के बिना हमारा देश कितना तेजोमय बन जाएगा। ‘भ्रम और निरसन’
किताब इसी विवेकवाद को पुख्ता करती है। हमारे आंखों को खोल देती है और हमें लगने
लगता है कि भाई आज तक हमने कितनी गलत धारणाओं के साथ जिंदगी जी है। मन में पैदा
होनेवाला यह अपराधबोध ही विवेकवादी रास्तों पर जाने की प्राथमिक पहल है।
किताब के अंत में डी. एस. नार्वेकर गुरुजी का अंतिम ‘संदेश’ डॉ.
नरेंद्र दाभोलकर जी ने जानबूझकर जोडा है। कोई व्यक्ति विवेकवादी जीवन जीने के लिए
कौनसी कोशिशें करता है और अपने बच्चों को उन्हीं रास्तों पर लेकर जाना है तो कौनसे
त्याग करने पडते हैं, इसका लेखाजोखा यह संदेश है। वैसे यह संदेश नहीं तो
‘मृत्यु-पत्र’ है। नार्वेकर गुरुजी ने इसमें जो बातें लिखी उससे पता चलता है वे
अपने बच्चों के नाम सारी दुनिया जिसके पीछे दौडती है वैसी संपत्ति छोडकर नहीं जा
रहे हैं लेकिन वे जिस विचार संपत्ति के पीछे दौडे उसे देकर जा रहे हैं। विवेकवादी,
सुधारवादी और प्रगतिवादी विचारों की संपत्ति किसी मां-बाप से अपने बच्चों के नाम
मृत्यु-पत्र में छोडी जाना बहुत बडी बात है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश
में किसी मां-बाप को इस प्रकार से पत्र लिखना पडता है, यह बहुत बडी दर्दनाक स्थिति
का परिचायक है। बच्चों को विवेकवादी, सुधारवादी, प्रगतिवादी, विज्ञानवादी,
ज्ञानवादी या तमाम मनुष्यों के लिए हितवादी बनाने का कार्य समाज का है, आस-पास के
सामाजिक माहौल का है। सामाजिक माहौल अपनी भूमिका ठीक ढंग से निभा नहीं रहा है,
नतिजन अपने बच्चों के भविष्य को लेकर मां-बाप चिंतित हो रहे हैं। अर्थात सामाजिक
परिस्थितियों में चारों तरफ दुषितता है, प्रदूषण है, बदबू है, गंदगी है। जन्म होने
से पहले ही ईश्वर, भगवान, देवी, देवता चित्र-विचित्र बातों का, तस्विरों का माहौल
बच्चों के आस-पास इस प्रकार से बुना जाता है कि वह अपने मां के गर्भ में भी
हाथ-पैर मारे तो उसे डर होता है कि कहीं गलती से इन कोटि-कोटि देवी-देवता की
मूर्तियों को लात ना लग जाए! कितना पाखंड, कितनी विडंबना है कि हम आंख खोले तो कोई
देवता-अल्ला-गॉड की झूठी तस्वीर दिख जाती है, कान खोले तो किसी
आरती-पूजा-पाठ-अजान-प्रार्थना की ध्वनि सुनाई देती है और मुंह खोले तो
देवी-देवता-ईश्वर-अल्ला-गॉड की ध्वनि निर्माण हो की कामना करते हैं। भाई...! बहुत
भयानक है। हम कौनसे युग में जी रहे हैं। बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वह उंचे
होहदों पर जाए, डॉक्टर-इंजीनिअर बने, वैज्ञानिक बने, बहुत... बहुत... बडा नाम
कमाए; किन परिस्थितियों में; इन परिस्थितियों में? ऐसे माहौल में जो बने और टिके
उनका अभिनंदन करना पडेगा, कारण विपरीत परिस्थिति में किसी को निर्माण होना है तो दोगुनी
ताकद लगानी पडती है। इन बच्चों ने दोगुनी ताकद लगाई, तभी तो निर्माण हो चुके हैं।
हम लोग रुढि-परंपरा और अंधविश्वासों के चलते अपने आपका नुकसान कर चुके हैं और अगली
पीढी का भी नुकसान कर रहे हैं। बहुत हंसी आती है और दुख भी होता है कि किसी बच्चे
के जन्मते ही उसके जीभ पर ओम, अल्ला, गॉड का नाम लिखने की कोशिश होती है। ऐसे नाम
लिखने से कुछ होता नहीं है, यह सबको पता है, अगर होता तो दुनियाभर के चोर-डकैत,
आतंकवादी... पैदा ही ना हो पाते। अगर ऐसा लिखने से सचमुच कुछ होता तो कोई मां-बाप
अपने बच्चे की जीभ पर कोई यान, क्रिकेट की बैट, बॉल, फुटबॉल, हॉकी स्टिक,
कलम-कागज, कुर्सी... आदि क्यों नहीं निकालता? मन की इच्छाएं अपना बच्चा बहुत...
बहुत... बडा बन जाए, लेकिन उसके लिए जो परिस्थितियां निर्माण की जा रही है वह सारी
देव-देवता-अल्ला-गॉड के पाखंडी रूपों की, झूठ-मिथ्या-फरेबों से भरी हुई? कमाल है?
इत्ती-सी (इतनी-सी) बात हमारे भेजे में घुसती नहीं? इससे भला हमारे भेजे का पत्थर
होना अच्छा होता?
खैर, जिसको जैसा जीना है वह वैसे जीए। लेकिन विवेकवादी और विज्ञानवादी
बनाने का काम डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जैसे कितने भी लोगों का खून हो, जारी रहेगा।
अंधविश्वास उन्मूलन समिति और उनके कार्यकर्ताओं की अपेक्षा है कि हम सुधर चुके हैं
और हमारे प्रयासों से एक व्यक्ति भी सुधर जाए तो इस आंदोलन की बहुत बडी सफलता मानी
जाएगी। कितने भी संकट आए, कितने भी खून हो जाए, कितनी भी सरकारें और पुलिस
व्यवस्था खून होते हुए आंखे बंद कर ले और चुप्पी साधे या हाथ पर हाथ धरे बैठे।
प्रयास जारी रहेंगे। कोशिश होगी विवेकवाद को तराशने की, विज्ञानवाद के पुरस्कार
की, आंखें खोलने की और संपूर्ण मनुष्य जाति के नुकसान को रोकने की; अधविश्वास
उन्मूलन समिति का कार्य तो यहीं है, वह किसी को अपना दुश्मन नहीं मानती। उनके पास
ऐसे पाखंडी लोगों से दोस्ती और दुश्मनी करने का समय ही नहीं है। वे अपने पाखंडी
कामों में लगे रहे, अंधविश्वास उन्मूलन समिति अपना काम करती रहेगी। देखेंगे जीत
पाखंडी, झूठे, फरेबी, परंपरावादियों की होती है या विवेकवादी, विज्ञानवादी,
प्रगतिशील विचारों की होती है।
डॉ. विजय
शिंदे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें