संजीव ने खोजी लेखन के तहत किसानों की जिंदगी पर केंद्रित
उपन्यास लिखा है ‘फांस’। संजीव का केवल यहीं एक उपन्यास खोजी लेखन नहीं है इसके
पहले के इनके ‘किसनगढ़ के अहेरी’, ‘सावधान! नीचे आग है’, ‘सर्कस’, ‘जंगल जहां शुरू
होता है’, ‘सूत्रधार’, ‘रह गई दिशाएं इस पार’ आदि उपन्यास भी इसका परिचय देते हैं।
संजीव के लेखन की यह भी एक ताकत है कि इन्होंने हर विचार, चिंतन और विषय को अलग से
लिखा है, मतलब लेखन के भीतर पूनरावृत्ति नहीं है। जिस भी विषय पर लिखना शुरू किया
उसको एक ही साथ, एक ही जगह पर पूर्णतः से लिखने की कोशिश की है। विषय का वैविध्य
रहा है। समाज के भीतर की वास्वविकताओं को सबके सामने रखने का जरिया उपन्यास को
बनाया है। संजीव के उपन्यास इसी कारण काल्पनिक कम और वास्वववादी अधिक है। ‘फांस’
पर लिखने से पहले संजीव के लेखन पर चंद पंक्तियों के साथ यह आरंभ है। मन और
अंतरआत्मा ‘फांस’ पढ़ते वक्त हमारे दम को घोटने लगती है। व्यवस्था, वर्तमान सामाजिक
जीवन, दलाल संस्कृति, बिचौलिए, बाजार, विकास, कॅशलेस संस्कृति, कालाधन, सरकार,
राजनीति, कुर्सी, आदर्श, सशक्त भारत, समृद्ध भारत, महाशक्तिशाली भारत... आदि-आदि
बातें, विचार हमारे आस-पास घूमने लगते हैं। हमारा देश तेजी से आगे बढ़ रहा है,
सुनकर बहुत खुशी होती है।
जिस मिट्टी में हम लोग पले-बढ़े उससे गद्दारी कर अपने ही
भोगों में लिप्त नवीन भारत के हम जैसे नागरिक उस मिट्टी के ऋण को भूल चुके हैं।
‘फांस’ को पढ़ते हुए हर जगह पर, हर समय लगता है कि हम अपराधी है। कानों में कर्कश
आवाजें परदों को चिरती हुई कलेजे तक दर्दों को निर्माण करती है कि भाई तुम भी इस
व्यवस्था के टूकड़ों पर पलनेवाला एक परजीवि जीव हो जो किसान का खून चुसने का
भागीदार है। कुछ सालों पहले कहां जाता था कि भारत में अस्सी फिसदी किसान है और
खेती पर निर्भरता है। परंतु वर्तमान में कहां जा रहा है कि भारत में साठ फिसदी
किसान है और खेती पर निर्भरता है। सवाल यह उठता है कि अस्सी से साठ तक पहुंचना
प्रगति की निशानी है या किसानी से हारकर किसानों ने खेती करना छोड़कर अपनी निर्भरता
के लिए कोई दूसरा मार्ग ढूंढ़ लिया है। चितंक, ए.सी. में बैठे पॉलिसी मेकर और
किसानों को अन्नदाता कहकर उसके दुःखों पर मरहमपट्टी कर मरने के लिए पृष्ठभूमि तैयार
करनेवाला हर शख्स कुछ भी कहे या स्पष्टीकरण दें कुछ फर्क नहीं पड़ता; वास्तव यहीं
है और एक वाक्य में ही बताया जा सकता है, अब किसानों का खेती से जी भर चुका है,
पेट भरने के लिए दूसरा मार्ग नहीं, अतः वे मजबूरन खेती कर रहे हैं। जिस दिन उनके
लिए जीने का दूसरा रास्ता मिलेगा, आर्थिक निर्भरता का दूसरा स्रोत निर्माण होगा और
पेट भरने का खेती के अलावा दूसरा विकल्प खुलेगा, उस दिन किसान खेती छोड़ देगा।
अस्सी से साठ फिसदी तक आना मतलब बीस फिसदी की कटौती यही बयां करती है कि इन बीस
फिसदी लोगों के लिए जिंदगी जीने के दूसरे मार्ग मिल गए हैं, खेती को छोड़ दिया, बेच
दिया। किसानों के लिए खेती केवल जिंदगी जीने का मार्ग नहीं है यह उसकी आदत है और
यह आदत अचानक छूट जाए तो पीड़ा होती है, तकलीफ देती है। इन बीस फिसदी किसानों ने
उसे सहा है और पचाया भी है। उन्हें मलाल भी है, पर दूसरी तरफ वे सुख और शांति से
यह भी कहते हैं कि भाई मैंने और मेरे पुरखों ने हजारों बरसों से गुलामी सही, अब
कम-से-कम हमारी अगली पीढ़ी इस गुलामी से मुक्त हो गई।
खेती से गुलामी है, जिंदगी का मिट्टी बनना है, कर्जे में
मौत मिलनी है, साहूकारों के पास जमीनों के साथ अपनी आत्मा गिरवी रखनी है, आत्मा के
पानी से सींचे हरे-भरे पौधे अकाल के कारण खेती में सूख जाने हैं, बेमौसमी बारिश और
तूफान से खेती के भीतर फूली-फली फसल बह जानी है, तबाह होनी है, हाड़तोड़ मेहनत के
बावजूद भी दो वक्त की रोटी के लिए तरसना है, दो-दो, चार-चार किलोमिटर पानी के एक घड़े
के लिए भटकना है, अपने घर में गाय-भैस-बकरी होकर भी दूध के लिए तरसना है.... तो
हमेशा के लिए सवाल यह उठता है कि भाई खेती में किसान मन क्यों लगाए? संजीव के
‘फांस’ को समझने के लिए किसान होना जरूरी है या किसानी से वास्ता पड़ना भी जरूरी
है। हालांकि संजीव के उपन्यास का केंद्र महाराष्ट्र है; विशेषकर विदर्भ, मराठवाड़ा
और खांदेश का वह हिस्सा है, जहां पर सिंचाई कम है और किसानों की आत्महत्याएं ज्यादा
हो चुकी है। लगातार किसान आत्महत्याएं कर रहा है और महाराष्ट्र तथा देश के तमाम
चितंक यह तय करने में लगे हैं कि हमारे प्रदेश की अपेक्षा दूसरे प्रदेशों में और
राज्यों में आबादी और प्रदेश विस्तार में आंका जाए तो आत्महत्याएं ज्यादा हो रही
है। मतलब नंबर एक पर कोई और है, हमारा नंबर उसके बाद का है। महाराष्ट्र में भी
नरेंद्र जाधव की रिपोर्ट यहीं बताती है। आत्महत्या के कारणों में यह भी बताया गया
कि खेती के लिए उठाए गए कर्जे की अपेक्षा कई अन्य कारणों से किसान अधिक आत्महत्या
करता है, जैसे बेटी-बेटे की शादी का खर्चा, शराबी होना, मौज-मस्ती, बीमारी... आदि
कारणों का लंबा लेखाजोखा इन विद्वानों (?) की रिपोर्टों में हैं। जैसे कोई
पोस्टमार्टम करनेवाला डॉक्टर घूस लेकर रिपोर्ट बदल देता है वैसी यह रिपोर्टे। कोई
विश्वसनीयता नहीं और कोई मानवीयता नहीं। इन रिपोर्ट लेखकों को पूछना चाहिए कि भाई आपने
कभी शराब पी नहीं, कोई नौकरी पेशा व्यक्ति को शराब की आदत नहीं, आपने धूमधाम से
अपने बच्चों की शादी नहीं की, कर्जा लेकर घर-गाड़ी नहीं खरीदी, छोटीसी बीमारी के
बदले सरकारी ऑफिस से खर्चा वसूल नहीं किया, टी.ए., डी.ए. के झूठे बिल बनाकर कई बार
सरकारी खजाने को लूटकर डाका नहीं डाला। सौ बहाने और सौ झूठ के बाद अपने सुखों को
तलाशता नौकरशाह व्यक्ति और सौ फिसदी ईमानदारी से सेल्फ फायनांस करता भारतीय किसान
स्पर्धा में कैसे टीक पाएगा? ऊपर से नौकरशाहों-पूजीपतियों को लूटने के लिए कोई है
नहीं, अगर कभी लूटा भी जाए तो ऐसी कुर्सी पर बैठे हैं कि जितनी लूट हो चुकी है
उससे दस गुना बहुत जल्दी वसूल कर लेते हैं। और सौ चूहें खाकर बिल्ली चली हजवाली
इनकी सूरतें किसानों की आत्महत्याओं पर रिपोर्टों को लिख रही है। अगर इन
कुर्सिवालों, अफसरों, नौकरशाहों, रिपोर्ट लेखकों का बस चले तो मरे हुए किसानों के
शवों को आत्महत्या के अपराध मै दूबारा सजाए-मौत दे सकते हैं! आखिरकार भारत का
किसान कितने सालों से कितनी बार मरता रहेगा और आगे कितनी बार मरना है?
‘भारत कृषि प्रधान देश है’ यह वाक्य बचपन से कितनी बार पढ़ा
और कितनी बार सुना। यह कोई गर्व की बात नहीं है, बचपन में इसे सुनना अच्छा लगता था
परंतु अब ऐसे लगता है मानो कोई इस वाक्य के साथ भद्दी-गंदी गाली दे रहा है। किसानों
के लिए शोषण, लूट ही तो है। इनकी आत्महत्याओं को झूठा मानकर और सच्चाई को
छिपानेवाली रिपोर्टे आएगी और छापी जाएगी। आत्महत्या इनकी कलमों से वैध्य और अवैध्य
ठहराई जाएगी। पात्र और अपात्र के बीच फंसा किसान यह जान चुका है कि अपने गले में पड़े
फांसी के फंदे की चिंता को छोड़कर अगली पीढ़ी को सुरक्षित करना है; अतः जैसे भी हो
हमारे बच्चे किसानी नहीं करेंगे इस निष्कर्ष तक वह आ चुका है। नतीजन अस्सी से साठ फिसदी
तक आना हुआ है। अर्थात् भारत के बीस फिसदी किसानों ने खेती करना छोड़ दिया है और
बचे हुए बार-बार यह सवाल कर है कि आखिरकार खेती से किसान मन क्यों लगाए?
प्रस्तुत आलेख 'अपनी माटी' अप्रैल-सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए इस लिंक को क्लिक करें - ‘फांस’ से उठता सवाल : खेती से किसान मन क्यों लगाए?