फिल्म के निर्माण की
अनेक महत्त्वपूर्ण कड़ियों में से अहं कड़ी हैं - संवाद। संवाद सृजन प्रक्रिया के
साथ जुड़नेवाली कला है। संवादों के माध्यम से कहानी को कथात्मक रूप से संवादात्मक
और नाटकीय रूप प्राप्त होता है, जिसका उपयोग अभिनय के दौरान होता है। फिल्मों की
व्यावसायिक और कलात्मक सफलता भी तस्वीरों की सूक्ष्मताओं और संवाद के आकर्षक होने
पर निर्भर होती है। न केवल भारत में बल्कि विश्व सिनेमा में आरंभिक फिल्में अवाक (बिना
आवाज) की थी। इन्हें सवाक (वाणी के साथ, आवाज के साथ) होने में काफी समय लगा।
हालांकि सिनेमा के निर्माताओं की मंशा इन्हें आवाज के साथ प्रदर्शित करने की थी
परंतु तकनीकी कमजोरियां और कमियों के चलते यह संभव नहीं हो सका। धीरे-धीरे दर्शकों
का और सारी दुनिया का सिनेमा के प्रति आकर्षण उसमें नई-नई खोजों से इजाफा करते गया
और फिल्में सवाक बनी और आगे चलकर रंगीन भी हो गई। चित्रों के माध्यम से प्रकट
होनेवाली कथा-पटकथा संवाद के जुड़ते ही मानो लोगों के मुंह-जुबानी बात करने लगी।
लोग पहले से अधिक उत्कटता के साथ फिल्मों से जुड़ने लगे और विश्वभर में सिनेमा का
कारोबार दिन दुनी रात चौगुनी प्रगति करने लगा। फिल्मों के लिए चुनी कहानी को पटकथा
में रूपांतरित करने के लिए और पटकथा को संवादों में ढालने के लिए आलग-अलग
व्यक्तियों की नियुक्तियां होने लगी। इसमें माहिर लोग पात्रों के माध्यम से अपने
संवाद कहने लगे और आगे चलकर यहीं संवाद लोगों के दिलों-दिमाग की बात भी करने लगे।
संवादों का फिल्मों के साथ जुड़ते ही फिल्में सार्थक रूप में जीवंत होने की ओर और
एक कदम उठा चुकी। प्रस्तुत आलेख 'रचनाकार' ई पत्रिका के फरवरी अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - फिल्मों का संवाद लेखन (Dialogue Writing)
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