सन् 1895 में विश्व
सिनेमा का आगाज लिमिएर बंधुओं की फिल्म ‘द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेन’ से हुआ और सिनेमा के
दुनिया की गाड़ी भी पटरी पर चढ़ गई। आरंभिक दौर में जितने भी सिनेमा स्वरूपवाली छोटी
फिल्में बनी वह उस युग की मांग और कौतूहल को बढ़ावा देनेवाली थी। सिनेमा की असली शुरुआत सिनेमा में कहानी
के ढलने से आ गई। विश्व सिनेमा में आज उसकी ताकत कौनसी है, मूल्यांकन करे तो कथा
(कहानी) की ओर संकेत किया जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य तत्त्व और
इलिमेंट्स महत्त्वपूर्ण नहीं है; अन्य तत्त्वों का भी उतना ही महत्त्व है जितना
कहानी का। परंतु अन्य तत्त्वों की जीवंतता और सजीवता फिल्में के कथा पर निर्भर
होती है। इंसान के शरीर के विविध अंग हो परंतु उसमें जीव (आत्मा) न हो तो उसके
अंगों का होने न होने से कोई मतलब नहीं हैं; जैसे ही उस शरीर में जीव (आत्मा) ढल
जाता है वैसे ही शरीर के सभी अंगों को एहमीयत प्राप्त होती है। बिल्कुल यहीं बात
सिनेमा के लिए भी लागु पड़ती है, ‘कथा’ सिनेमा के लिए जीव का कार्य करती है और अन्य
सहायक बातें उसके शरीर के अंगों का कार्य करते हैं। भारतीय सिनेमा में विश्व
सिनेमा से थोड़ी अलग परंपरा है यहां कथा के साथ गीत और नृत भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण
है। यह भारतीय सिनेमा का जीव (आत्मा) तो है नहीं परंतु उसके नजदीक तो जरूर पहुंचता
हैं। भारतीय सिनेमा में कथा के नाते कई कमजोर फिल्में अच्छे गीत-संगीत और नृत के
बल पर सराही जा चुकी हैं। गीत-संगीत और नृत (‘साजन’, ‘आशिकी’ जैसी फिल्में) के
नाते वह फिल्में कथा की कमजोरीयत को भर देती है। खैर इन फिल्मों में भी अगर कथा और
ताकतवर होती तो वह हिस्सा भी भर जाता और कथा की अपेक्षा रखनेवाले दर्शकों की मांग
भी पूरी होती। विश्व सिनेमा की बात करें तो गीत, कथा जैसे महत्त्वपूर्ण नहीं है।
विश्व सिनेमा में गीत सहायक इलिमेंट बनकर आ जाता है और कथा ही प्रमुख होती है।
विश्व सिनेमा की शुरुआत कथा के अभाव में केवल दृश्यों
के साथ हुई और जिस जगह पर इसके साथ कथा जुड़ी उसकी जीवंतता मुखरित हुई और दर्शक की
मांग को फिल्मों ने पूरा करना शुरू किया। फिल्मों में कथा का समावेश होते ही
पाठकों के लिए किताब पढ़ने का जो आनंद मिलता है वह आनंद दोगुना होने लगा। फिल्मों
में दर्शक कथा सुन भी सकता था और देख भी सकता था। साहित्यिक दुनिया में कथाओं का
आरंभिक अस्तित्व श्रवण (सुना जाना) ही था और फिल्मों को कथा का कानों से श्रवण के
साथ देखने का आनंद लेना साहित्य के पाठकों के लिए अत्यंत प्रिय हुआ। भारतीय सिनेमा
की पहली अवाक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) बनी जिसमें पौराणिक कथा को
फिल्मांकित किया था। तात्पर्य क्या है, तकनीकी अड़चनें और आवाज अभाव के चलते दादासाहब
फालके ने दर्शकों के सामने एक कथा को ही परोसा, जिसे दर्शकों ने काफी सराहा। ‘आलम आरा’
(1931) ध्वनि, कथा, संगीत, नृत के साथ भारतीय सिनेमा में दाखिल हुई और दर्शकों ने
इसे सर-आंखों पर लिया। ध्वनि अभाव में कथा सुनने की इंसानी मांग अवाक फिल्मों में
बाधित हो रही थी वह सवाक फिल्मों में ध्वनि के जुड़ते ही पूरी हो गई। कथा सुनने की
सालों से चलती आ रही इंसानी दुनिया की परंपरा को इस पहल से मानो पर लग जाते हैं।
कुलमिलाकर कहा जा सकता है कथा ने दर्शकों की मांग को पूरा किया और सिनेमा के
एहमीयत को बनाए भी रखा है। सिनेमा में कथा का होना अनिवार्य तो है ही परंतु उसकी
उपस्थिति का भी एक पॅटर्न और फॉर्म है, उसकी एक संरचना (Structure) है। सिनेमा की कथा उस संरचना के साथ जब बन जाती है तो दो-ढाई घंटे की फिल्म
दर्शकों को अलग दुनिया में लेकर जा सकती है। कथा के नियमों और कानून का पालन हो
जाए तो फिल्मों में कथा दर्शकों को अद्भुत आनंद दे सकती है और सिनेमाई संकल्प तथा
उद्देश्य की पूर्ति भी हो सकती है। सिनेमा की कथा संरचना यह आलेख Research Front ई-पत्रिका के प्रकाशित हो चुका है। संपूर्ण आलेख पढने हेतु उसकी लिंक दे रहा हूं -
http://www.researchfront.in/22%20JULY-SEPT%202016/17.pdf
http://www.researchfront.in/22%20JULY-SEPT%202016/17.pdf
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