बुधवार, 13 जुलाई 2016

विश्व सिनेमा के इतिहास का विहंगावलोकन



28 दिसंबर, 1895 में आयोजित पहले फिल्मी शो की देन लिमिएर बंधुओं की रही। द अरायव्हल ऑफ अ ट्रेनउनकी पहली फिल्म बनी और सिनेमाटोग्राफी मशीन के सहारे बाद में उन्होंने कई छोटी-छोटी फिल्मों को दिखाना शुरू किया। उनके इन दृश्यों में कॅमरा एक ही जगह पर सेट करके फिल्मांकन होता था, उसमें कई कमियां थी परंतु पूरे विश्व में विविध जगहों पर हो रहे उनके प्रदर्शन और उसे देख विद्वान और लोगों के आकर्षण तथा आश्चर्य का कोई पारावार नहीं था। इन फिल्मों का प्रदर्शन होता था उससे पहले विभिन्न देशों के अखबारों और उन शहरों में उसका प्रचार-प्रसार जोरशोर से होता था कि आपके शहरों मे सदी के सबसे बड़े चमत्कार का प्रदर्शन होने जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि शौकिन, जिनके पास पैसा था वे, कौतुहल रखनेवाले, वैज्ञानिक, पत्रकार, चिंतक, साहित्यकार तथा सभी वर्गों के लोग इस चमत्कार को आंखों से देखने तथा उसका साक्षी होने के लिए उपस्थित रहा कर रहे थे और सच मायने में चकित भी हो रहे थे। तभी वैज्ञानिक, चिंतक, इस विषय में रुचि रखनेवालों के साथ बाकी सब ने भी यह पहचान लिया था कि इसतरह से परदे पर चलते-फिरते चित्रों को देखना सच्चे मायने में अद्भुत है और इस तकनीक में असीम संभावनाएं भी है, भविष्य में यह तकनीक सचमुच सदी का सबसे बड़ा चमत्कार और अद्भुत खोज साबित होगी बता रही थी। आज विश्व सिनेमा जिन स्थितियों में है उससे आरंभ के समीक्षक और विद्वानों ने कहीं बात की सच्चाई साबित भी होती है। आज सिनेमा का भविष्य और ताकतवर, उज्ज्वल होने की संभावनाएं दिख रही है। नवीन तकनीकों के चलते सामान्य लोगों तक वह और बेहतर रूप में आसानी के साथ पहुंचेगा।
       मूक फिल्मों से सवाक फिल्मों तक का सफर तय करते तथा आरंभिक सिनेमाई विकास की गति धीमी थी। इसके तकनीकों को लेकर शोध जारी था। आरंभिक तीस-पैंतीस सालों तक इसके विकास और तकनीक परिवर्तन की गति भी धीमी थी पर लोगों में उत्साह ज्यादा था। जैसे ही फिल्मों में कहानी ढली तथा आवाज के साथ संगीत जुड़ा और वह रंगीन हो गया तब मानो सिनेमा में चार चांद लग गए। इसके बाद सिनेमा के विकास और तकनीकों में भी अद्भुत परिवर्तन आ गया। आज विश्व सिनेमा में जितनी भी बड़ी खोज हो चुकी वह सारी भारतीय सिनेमा जगत में देखी जा सकती है। उससे हम कल्पना कर सकते हैं कि 1895 से 1930 तक का सिनेमाई सफर धीरे-धीरे और वहां से आगे आज-तक 85 वर्षों में कितना परिवर्तित हो गया। सरसरी नजर से कहे तो केवल पचास वर्षों में इसमें इतना परिवर्तन आ गया कि जिससे पूरी दुनिया चकित है। मनुष्य की ज्यादा से ज्यादा लंबी जिंदगी सौ वर्ष भी मानी जाए तो सिनेमा निर्माण और उसका चरम पर पहुंचना एक इंसान के लिए उसकी आंखों देखी है। आज-कल तो यह तकनीकें इतनी आसान हो गई है कि आप केवल कॅमरे और कंप्युटर के बलबूते पर बहुत और बहुत अच्छी फिल्म बना सकते हैं। ईरानी नव सिनेमा के प्रणेता जाफर पनाहिने इसका उदाहरण है। ‘द व्हाईट बलुन’ (1995), ‘द सर्कल’ (2000), ‘ऑफसाईड’ (2006) जैसी ईरानी फिल्में उन्होंने बनाई तो न केवल उनके देश में तो विश्व सिनेमा में मानो धमाका हो गया। जिन विषयों और तकनीकों को उन्होंने उठाया उससे उनकी सरकार परेशान हो गई उन पर फिल्में बनाने के लिए पाबंदी लगवाई गई। फिर भी नए तकनीकों के सहारे बिना पैसा लगाए उन्होंने पाबंदी के बावजूद भी इसे बनना जारी रखा। ‘दिस इज नॉट अ फिल्म’ (2011), ‘क्लोज्ड कर्टन’ (2013) जैसी फिल्मों ने इनके दिमाग के तारों को खोल दिया। 2015 में आयोजित कॉन फिल्म समारोह में इनकी फिल्म ‘टॅक्सी’ (2015) को पुरुस्कृत किया जाना बताता है कि दुनिया की कोई भी ताकत किसी को भी फिल्में बनाने से और उसे प्रदर्शित करने से रोक नहीं सकती। कुछ ही दिनों में बिल्कुल कम लागत में केवल एक कॅमरे से और कंप्युटर तकनीक से बनी ‘टॅक्सी’ सम्मानित हो सकती है तो यह बहुत छोटा सिनेमाई इतिहास बहुत बड़ी ताकत दिखा देता है साथ ही निकट भविष्य में प्रत्येक व्यक्ति के लिए निर्माण क्षेत्र खुलने का भी संकेत देता है।
       यहां विश्व सिनेमा का विहंगावलोकन है। पाठक यह मानने की भूल ना करें कि यह संपूर्ण इतिहास है, परिपूर्ण इतिहास है। यह इतना बड़ा क्षेत्र है कि इस पर कई किताबें लिखी जा सकती है। यह एक सागर के बूंद में से छोटे हिस्से को पकड़ने जैसा है। हमारी आंखें अगर खुली है तो हमारे आस-पास इससे जुड़ी कई बातें देखने और पढ़ने को मिलेगी। सरसरी नजर से इसे केवल एक विहंगावलोकन ही माने।
       विश्व में कई देश हैं और कई भाषाएं भी है। फिल्म इंडस्ट्री भी इस तरह से विस्तृत और व्यापक है। फिल्म मनुष्यों के लिए मानो भूतकाल को दुबारा जीवंत करना, यथार्थ से परिचित होना और भविष्य में ताक-झांक करने जैसा है। अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाएं एक साथ दो-ढाई घंटे मे परदे पर दृश्य रूप और ध्वनि के साथ साकार होना तीनों लोकों (भूत-वर्तमान-भविष्य) का सफर करने जैसा ही है। इंसान ने सिनेमा को जादू-सा पाया और दुनिया की वास्तविकताओं, कल्पनाओं को एक ही जगह पर देख लिया और उसमें से बहुत कुछ अपनी झोली में भरना चाहा। प्रस्तुत आलेख 'Research Front' ई-पत्रिका के जनवरी-मार्च 2016 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आगे पढने के लिए उसकी लिंक है http://www.researchfront.in/20%20JAN-MARCH%202016/11.pdf
  

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