'लेखनी' के नए अक्तूबर-नवंबर के अंक में नया आलेख प्रकाशित हुआ है। मूल आलेख पढना चाहते हैं तो उसकी लिंक है - घने-काले ‘अंधेरे में’ नितांत अकेलाः विजय शिंदे वैसे मूल आलेख जैसे हैं वैसे निचे जोडा गया है।
मनुष्य इस दुनिया में बच्चे के रूप में मां के पेट से जब जन्म लेता है
तब वह दुनिया से परिचित नहीं होता है। अपनी किलकिली आंखों से वह दुनिया का परीक्षण
करना शुरू कर देता है। एक-एक चीज उसके आंखों से होकर दिमाग में अंकित होना शुरू
करती है। कहा जाता है कि ‘दुनिया बड़ी जालिम है।’ अर्थात् इसकी जालिमता के भी कुछ दृश्य, घटनाएं धीरे-धीरे वह पहचानने लगता है। देर लगती है, परंतु
दुनियादारी से जुड़े हर आयाम से वह परिचित होने लगता है। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ने लगती है वैसे-वैसे उसका और अधिक
दुनिया से परिचय होता है। अच्छी-बुरी सारी स्थितियों से
वाकिफ भी होता है। दुनिया की गुत्थियां, पेचिदगियां और
अनसुलझे प्रश्नों के साथ उसकी एक लंबी लडाई शुरू होती है और वह एक भयानक ‘अंधेरे में’ प्रवेश करने लगता है। जो बच्चा बचपन में
भय नामक चीज से बिल्कुल परिचित नहीं होता, वहीं बडा होने पर
छोटी-छोटी चीजों से भयभीत होने लगता है। सामाजिक परिस्थितियां
उसके मन पर जबरदस्त दबाव डालती है कि उसका मन आतंकित हो उठता है। लगता है, इंसानों से भरी दुनिया इंसानों के बिना जी रही है। एक तरफ ‘भरना’ भी है और
भरकर ‘खालीपन’ भी है। विपरीत परिस्थितियों के जाल में फंसा
आदमी विभिन्न अंतरों, मत-मतांतरों,
दीवारों, मुश्किलों, विवादों,
वर्ण-व्यवस्थाओं, जाति-व्यवस्थाओं, धर्म-संप्रदायों,
आर्थिक विभिन्नताओं, शक्तियों... में फंसकर दिग्भ्रमित होता है। आकाश की ओर हाथ-आंखें
उठाए अपने-आपको स्थिर बनाने की कोशिश करता है। पैर डगमगाने
लगते हैं, सिर चकराने लगता है, शरीर
रोमांचित होता है, दिल की धड़कने बढ़ने लगती है और मन भयभीत
होकर कंपकंपाने लगता है। वह एक ऐसी मानसिक अवस्था में पहुंचता है कि उसे दुनिया से
ही भय लगने लगता है। अपने आस-पास से भय लगने लगता है। एक ऐसे
घुप्प ‘अंधेरे में’ उसकी तकलीफदेय
छटपटाहट शुरू होती है, जो अन्य देख नहीं सकते हैं, केवल और केवल वह अकेला देख सकता है। फिर उस अकेलेपन से उसे और अधिक भय
निर्माण होता है।
देश-दुनिया के युवक आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं,
वह परिस्थितियां उन पर बहुत अधिक दबाव डाल रही है। भूतकाल से ताकत नहीं, वर्तमान संघर्षभरा है, दबाव डाल रहा है और भविष्य का
कोई ठिकाना नहीं है। असंदिग्धता से भरा पूरा माहौल युवकों के सामने प्रश्न बनकर
खडा है। जो निश्चित मकाम तक पहुंचा है, या अपनी जरूरतों को पाने में सक्षम है,
वह इस भय से शायद ही परिचित हो। परंतु दांवे के साथ कहा जा सकता है
कि कभी वह भी दबावों को झेलता हुआ इन स्थितियों से गुजरा होगा। कम से कम इन दबावों
ने उसे एक क्षण के लिए ही सही भयभीत किया होगा। यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिससे
युवकों को गुजरना ही पड़ता है। ऐसी स्थितियों में जो अपना बैलंस बनाने में सफल होगा,
वह इस भय से मुक्ति पाने में सफल होता है। इसका कालखंड़ दो बरस,
पांच बरस, या दस बरस का है... बताया नहीं जा सकता, पर होता जरूर है। यह एक ऐसा
अंधेरा रास्ता है जिससे हर एक को गुजरना ही होता है।
जीवन में ऐसे कई घटना-प्रसंग आते हैं जो हमारी यादों
पर छाप छोड़ते हैं- कुछ अच्छे, कुछ बुरे,
कुछ भय निर्माण करने वाले। इंसान है, तो ऐसी स्थितियों से गुजरना तो
है ही। इंसान है, तो बीमार भी पड़ना है। ...पांचवी कक्षा में था
तब की बात है। बुखार से शरीर जले जा रहा था। एक सप्ताह हो गया, स्कूल की तरफ कदम उठे नहीं थे। घर में पड़े-पड़े खपरैल
छत देख-देखकर मन उकता चुका था। थोड़ी-सी
आंख लगी कि भयानक सपनें आतंक पैदा कर देते थे। तो बुखार बुरे सपनों को आमंत्रित करता
है और वह भी इतने भयानक कि पूछे नहीं। बुखार, ऊपर से भयानक सपनें।
गर्मी के दिन। कुलमिलाकर पसीना-पसीना और बिछावन भय से गीला। भाई
स्कूल में। मां गाय-भैस को चराने ले जाती और पिताजी पास में ही
चल रहे नए तालाब के लिए बांध पर मजदूरी करने निकल पड़ते। अकेलापन आतंक पैदा करते रहता।
गर्मी और अंधेरे से छुटकारा पाने के लिए घास की छत वाले अगले हिस्से में बिछावन डाले
रखा था। सुबह दस का समय था। हमारे घर के सामने से बांध पर काम करने वाले मजदूर जाया
करते थे। कुछ बाहरी गांव से भी बुलाए गए थें और उनके पास मिट्टी और पत्थर ढोने के लिए
गधे भी थें। जब ठीक था तब और जब बीमार था तब भी रोज आंखों के सामने से इनके आने-जाने का दृश्य गुजर जाता था। आंखें थोड़ी बंद, थोड़ी खुली।
झपकी आ रही है और बुखार भी तेज। बढ़ते बुखार के साथ सामने से गधे अपने मालिक के साथ
गुजर रहे हैं। एकदम अचानक एक गधा आक्रामक होकर ‘हुं...
हां, हुं...हां’ करते चिल्लाने लगता है। कुदने लगता है। दुलत्थियां मारने लगता है और उसके पास
से जाने वाले मेरे चाचा (अप्पा) को एक झटके
के साथ अपने मुंह में पकड़कर गपागप चबाने लगता है। मैं भयभीत होकर बिस्तर से उठकर जोर-जोर से चिल्लाते हुए आंगन से होकर गधे की ओर भागने लगता हूं। मुझे दौड़ते हुए,
चिल्लाते हुए देखकर मां भी मेरे पीछे दौड़ती है। मुझे पकड़कर गोद में उठाती
है। शांत करने की कोशिश करती है। झपकी लगने से पहले गधे मेरे आंखों के सामने से गुजर
रहे थें और इस समय आंख लगते ही वह भयानक सपने में तबदील होकर मेरे चाचा को चबा रहे
थे, जिससे भयभीत होकर मैं चिल्लाते जा रहा था। खैर आज भी वह चाचा
जिंदा है। हमसे अच्छी स्थितियां थी कारण फौज में नौकरी कर रहे थे। ठीक-ठाक चलता था। समय के चलते घमंड़, अहं और गर्व का गधा न
केवल उन्हें उनके सारे परिवार को गपागप खाए जा रहा है।
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बी.ए. हो गया और एम.ए. हिंदी के लिए शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर में
ऍडमिशन लिया। घर की स्थितियां बदली थी। बचपन में जो अर्थाभाव देखा था उसकी मार थोड़ी
कम हो गई थी। कारण इस बीच बड़ा भाई फौज में भर्ती हो गया था। मेरी पढ़ाई उसी के बलबूते
पर चल रही थी। वैसे खर्चा ज्यादा तो था नहीं परंतु सामान्य आर्थिक स्थितियां दबाव बना
लेती ही है। जैसे-जैसे आगे पढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे मन में अपराध भाव का भय भी बढ़ते जा रहा था। भविष्य की असुरक्षितता इस
भय को और बढ़ावा दे रही थी। सामाजिक अशांतता, बेरोजगारी,
शिक्षित युवकों का संघर्ष इस भय को सिंचते जा रहा था। होस्टल में एक
समान उम्र के सारे दोस्त, सबकी स्थितियां वहीं। अनावश्यक तौर
पर अनावश्यक दबाव। नवीन माहौल और गांव-घर से दूरी। मन में अनेक
प्रकार के भय के साथ अशांति का भाव रातों की नींद हराम करते जा रहा था। खैर जैसे-तैसे नए परिवेश से गाड़ी आगे बढ़ रही थी पर मन अशांति से भरा था। होस्टल क्रमांक
तीन रूम नंबर तेरह। चपरासी ने रूम की चाबियां हाथों में सौंपते हुए व्यंग्य और मजाकियां
तौर पर कहा कि "क्या कमरा मिला है? तुम्हारी पढ़ाई के तीन-तेरह न हो जाए।" यह वाक्य बार-बार कानों में गुंजते हुए भय निर्माण कर
रहा था।
कोल्हापुर जाते वक्त भाई ने टायमेक्स कि एक नई घड़ी दे दी थी। वैसी ही घड़ी
उसने अपने लिए भी खरीदी थी। बड़े प्यार से उसे पहना करता था, परंतु मन में अपराध भाव का भय बढ़ते जा रहा था कि वह अपने पढ़ाई पर पैसे लगवा
रहा है, भविष्य में इसका कोई लाभ होगा भी या नहीं? कारण मेरे जैसे अनेक युवक यहां पढ़ रहे हैं, इन सबको नौकरियां
लग सकती है? इनके साथ मैं स्पर्धा कर पाऊंगा? अगर इसमें असफल रहे तो कौनसे ‘अंधेरे में’ जाकर हमारी गाड़ी रूक जाएगी? मेस का खाना, किताबें, कपड़े, बिस्तर,
घड़ी... सब कुछ उसका। उधारी पर उधारी चढ़ती जा रही
थी और मन चितिंत भयभीत होते जा राह था। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता
था। दोस्त क्लास और किताबें। पर कहां से क्या शुरू करें? समझ में नहीं आ रहा था। लग
रहा था जैसे भी हो छोटी-सी नौकरी लग जाए तो जिंदगीका बेड़ा पार
होगा। लेकिन ‘छोटी-सी’ भी कहीं नजर नहीं आ रही थी। अपने रूम पार्टनर के साथ एक प्रयास फौज में भर्ती
होने के लिए ‘भर्तीपूर्व प्रशिक्षण’ लेने
का भी किया। वहां भी फेल हो गए। अर्थाभाव और दबावों के चलते शरीर इतना कमजोर हुआ था
कि वह प्राथमिक मापदंडों में भी नहीं बैठ रहा था। न छाती उनके अनुकूल थी और न वजन।
मायुसी के साथ वापसी। वहीं होस्टल का कमरा ‘तीन-तेरह’ और चपरासी के वाक्यों की गुंज। घड़ी सिरहाने टेबल
पर रखकर लोहे की खाट पर सो जाता था। पार्टनर और मेरे बीच
में टेबल। उसकी और मेरी चिंताएं एक समान। लाईट बंद। घुप्प काला अंधेरा। चारों तरफ शांति
पर मन अशांत। जैसे जैसे रात चढ़ने लगती वैसे-वैसे भयानक शांति
अंदर और बाहर भरने लगती। जिसको दिन में नहीं सुन सकते वह रात में बड़े आराम के साथ सुना
जा सकता है। दिल की धड़कनें, सांसों की आवाजें, और... और सिरहाने रखी टायमेक्स घड़ी की टिक-टिक। भय, डर और अनजानी चिंताओं की हथौड़ियों की चोटों
से दिल की धड़कने बढ़ती थी और बिस्तर पर बेचैन होकर उठ बैठता था। घने-काले ‘अंधेरें में’ नितांत अकेला,
केवल घड़ी की टिक-टिक के साथ डरकर, सहमकर, भयभीत होकर। यह कौन-सा भय
है? यह कौनसा अपराध भाव है? मेरा मन मुझे
ही सवाल करते जाता है और उससे भयभीत होकर सिर चकराने लगता है। सिद्धांतवादी मन परिस्थितियों
के तले दबने की तड़प से छटपटाते जाता है। मुक्तिबोध की ‘अंधेर
में’ कविता की भांति –
"ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरंभरि बन अनात्म बन गए,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गए,
किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िंदगी निष्क्रिय बन गई तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गए,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुंह मोड़
गए,
बन गए पत्थर,
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी मां को हकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को
पाल लिया,
भावना के कर्तव्य--त्याग दिए,
हृदय के मंतव्य--मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिए,
जम गए, जाम हुए, फंस गए,
अपने ही कीचड़ में धंस गए!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल
में
आदर्श खा गए!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम..."