मंथन
अपने घर से लौटते समय
(प्रस्तुत आलेख लेखनी ई-पत्रिका के मंथनःडॉ. विजय शिंदे | लेखनी/ lekhni अगस्त ...2014 के अंक में प्रकाशित हुआ है। पूरा आलेख यहां पर दे रहा हूं।)
वर्तमान सामाजिक ढांचा जिस गति के साथ परिवर्तित हो रहा है उससे अचंभा
होता है। यहां ‘परिवर्तित’ शब्द का जानबूझकर इस्तेमाल किया है। दूसरे
शब्दों में अगर इसे कहा जाए तो बिखर रहा है, टूट रहा है कहा जा सकता है; जो
सामाजिक ढांचे की गिरावट को दिखाता है। आधुनिकता और प्रगति के चलते पुराने
ढांचे में जबर्दस्त परिवर्तन हो रहा है। नवीन जरूरतें, नवीन मांगें और
आवश्यकताओं के चलते पुराने का बकर्रार रहना बिल्कुल संभव नहीं है। आज हम
जिस मकाम पर खड़े हैं वहां से वापस मूड़कर एक नजर डाले, थोड़ा-सा लौटकर हम
देखें कि कुछ दिन पहले, कुछ साल पहले, कुछ सदियों पहले हम कहां थें? तो हम
चकित हो जाएंगे। कारण हमने इंसान होने के नाते जिन उंचाइयों को छुआ है उससे
अचंभित होना लाजमी है। लेकिन यह देखकर भी दुःखी होते हैं कि इंसान होने के
नाते पारिवारिक ढांचा, रिश्ते-नातों के नाजुक जुड़ाव को यह आधुनिकता का
जामा कमजोर करते गया है। मूल कारण आधुनिकता और इसके साथ अन्य अनेक छोटे-बड़े
उपकारणों से मनुष्य जीवन के भीतर अनेक परिवर्तन हो चुके हैं, जिससे
व्यक्ति के रिश्तों के धागों में कमजोरी पैदा हो गई है। एक रूखापन-सा आ गया
है। भौतिक. भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक… अंतर इतना बढ़ गया है कि इंसान को
पता ही नहीं चला कि हम इतने दूर कब और कैसे चले आए। इस पीड़ा से बाहर निकलने
के लिए और दुबारा इन रिश्तों को जोड़ने के लिए प्रयास करना जरूरी है।
आधुनिकता की अच्छाइयों के स्वीकार के साथ नुकसानदेह बातों को छोड़कर पुराने
रिश्तों के धागों को मजबूत करना भी जरूरी है। जंगल के भीतर कोई व्यक्ति
अपना रास्ता भटक जाए तो दुबारा रास्ता पाने के लिए उसे उस जगह पर लौटना
जरूरी होता है जहां से उसने वापसी के लिए शुरुआत की थी। वापसी के ‘की
पॉईंट’ को पाया कि वह संभव है बाहर आने का मार्ग भी पाए। विकास के चलते
बढ़ता शहरीकरण और टूटते गांव, बिखरते रिश्ते, किसी जंगल में भटके यात्री से
कम नहीं है। गांवों में हाथ-पैर मारने पर भी आम आदमी अपनी आवश्यकताओं की
पूर्ति न कर पाने के यथार्थ से जब परिचीत होता है तब मजबूरन गांव को छोड़
देता है और शहर की ओर भागना शुरू कर देता है। उसके मन में भागम्-भाग से एक
कचोट निर्माण होती है कि ‘मैं मेरी आत्मा को मारकर निकल रहा हूं।’ क्या कभी
उसकी आत्मा जीवित हो सकती है? उसका वापस लौटना संभव है? या युं कहे कि शहर
में जो मौके हैं वे गांव के लोगों को गांव में ही मिल सकते हैं। या गांव
पूरी तरह युवकों के बिना बूढ़ों के साथ जीने के लिए शापित रहेंगे और बूढ़ों
के चल बसने के बाद बिल्कुल विरान हो जाएंगे?
अचानक मन में यह विचार क्यों निर्माण हो गए भाई? …मन के अंदर से एक आवाज
उठती है कि – अचानक कैसे? बार-बार तो इन परिस्थितियों से तुम गुजरते हो।
कभी ध्यान नहीं दिया, कभी ध्यान दिया तो लताड़कर उसे दूर भगा दिया। शहर जाए
तो गांव, घर, घर के लोग, वहां का परिवेश, गाय, भैस, बकरियां, चिड़ियां, वहां
की ताजी हवा, हरियाली, पेड़-पौधें, घास, पानी के झरने, गर्मी, कभी सूखा,
धूप… क्या-क्या नहीं छोड चले। गांव का इंसान शहर, शहर का बड़े शहर और बड़े
शहरों का विदेशों में जा रहा है। नवीन तंत्रज्ञान के चलते यह कड़ियां टूट
चुकी हैं, अतः प्रत्येक पढ़ा-लिखा बड़े शहरों और विदेशों में जाने की मंशा
रखता है। लेकिन जब भी कभी वह छुट्टियों (दो-चार दिन की हॉटेलिंग या
पिकनिक!) के लिए गांव लौटने लगता है तब उसकी पुरानी यादें ताजा होने लगती
हैं। त्रिलोचन की कविता ‘घर वापसी’ में इसका मार्मिक वर्णन है –
“घंटा गुजर गया, तब गाड़ी आगे सरकी
आने लगे बाग, हरियाले खेत, निराले;
अपनी भूमि दिखाई दी पहचानी, घर की
याद उभर आई मन में; तन रहा संभाले।
XXX
क्या-क्या देखूं, सबसे अपना कब का नाता
लगा हुआ है। रोम पुलकते हैं; प्राणों से
एकप्राण हो गया हूं, ऐसा क्षण आता
है तो छूता है तन-मन कोमल बाणों से।”
यह सफर बस से हो, ट्रेन से हो, अपनी गाड़ी से हो, हवाई जहाज से हो या और
किसी तरीके से। लौटते वक्त सफर के दौरान पुरानी यादों को ताजा करने के लिए
समय जरूर होता है। और मन के भीतर उन यादों का, रिश्तों का हिसाब-किताब शुरू
होता है। जिन सुख-सुविधाओं, भौतिकताओं, पैसों, मान-सम्मानों को पाया उससे
थोड़ा-बहुत सकुन तो मिलता है परंतु जिन चीजों को खोया उन बाणों से तन-मन
लहूलुहान भी होता है। अपने ही आंखों के आयने में झांकने के बाद अपराध भाव
भी महसूस होता है। कितने स्वार्थी हो गए हैं हम कि जहां अपनी आत्मा को
मरवाकर उड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
चार दिनों की छुट्टी (हॉटेलिंग या पिकनिक!) खत्म होने के बाद मजबूरी
होती है कि अपने नौकरी की जगह वापस भी लौटे। दुःख और पीड़ा होती है। पता
नहीं फिर वापस कब लौटे। जब लौटे तब आज जो है वह रहेगा या नहीं, भरौसा नहीं!
गांव में तो बूढ़े विचरन करने लगे हैं, दो-चार महीने में एक-एक विदाई लेते
जा रहा है। अगली बार आए तो कितने उड़ जाए पता नहीं। …मन में भय पैदा होता है
कि गांव भी तो बूढ़ा हो चुका है कहीं यह भी उड़ नहीं जाएगा ना? हर समय
रिश्तों के कमजोर होने का भय सिर पर मंड़राता है। आवाहन है कि पुराने को
मजबूत कर नए को जोड़ना। क्या कभी संभव है कि पुराने पर वापस लौटे और नए को
बनाए रखें? …आस-पास घुप्प फैले अंधेरे से कई भूतों की टोलियां उठकर नाचने
लगती हैं और कहती हैं कि ‘भाई तुम्हारी यह कल्पना भारत और पाकिस्तान को
दुबारा एक करने जैसा है।’ …मैं दहल उठता हूं कि क्या भविष्य में गांव और
शहर के रिश्ते भारत-पाकिस्तान जैसे हो जाएंगे?
बेटे का माता-पिता के घर लौटना जरूरी है। माता-पिता का बेटे के घर जाना
जरूरी है। बेटी के घर माता-पिता का जाना जरूरी है और बेटी भी माता-पिता के
घर वापस लौटकर देखे। हर आदमी लौटकर रिश्ते को मजबूत करें। अर्थात् रिश्ते
को बनाए रखना, मजबूत करना आवश्यक है। गांवों और शहरों में दूसरे अर्थों में
भारत और इंडिया में इन रिश्तों की मजबूती तो आवश्यक बनती है। चंद्रकांत
देवताले ‘बेटी के घर से लौटना’ में अपने आत्मा की पीड़ा को व्यक्त करते हैं –
“बहुत जरूरी है पहुंचना
सामान बांधते बमुश्किल कहते पिता
बेटी जिद करती
एक दिन और रुक जाओ न पापा
एक दिन
XXX
सोचता पिता सर्दी और नम हवा से बचते
दुनिया में सबसे कठिन है शायद
बेटी के घर से लौटना।”
व्यापक अर्थों में यह पीड़ा जगह-जगह, स्थान-स्थान महसूस की जाती है।
पात्र बदलेंगे पर पीड़ा तो वहीं है। वापस लौटने की अथवा रुकने की मांग तो है
ही।
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