सुदामा पांडे ‘धूमिल’ जी का नाम हिंदी साहित्य में सम्मान के साथ लिया
जाता है। तीन ही कविता संग्रह लिखे पर सारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश
की स्थितियों को नापने में सफल रहें। समकालीन कविता के दौर में एक ताकतवर
आवाज के नाते इनकी पहचान रही हैं। इनकी कविताओं में सहज, सरल और चोटिल भाषा
के वाग्बाण हैं, जो पढ़ने और सुनने वाले को घायल करते हैं। कविताओं में
संवादात्मकता है, प्रवाहात्मकता है, प्रश्नार्थकता है। कविताओं को पढ़ते हुए
लगता है कि मानो हम ही अपने अंतर्मन से संवाद कर रहे हो। आदमी हमेशा
चेहरों पर चेहरे चढाकर अपनी मूल पहचान गुम कर देता है। नकाब और नकली चेहरों
के माध्यम से हमेशा समाज में अपने-आपको प्रस्तुत करता है, पर वह अपने अंतर
आत्मा के आईने के सामने हमेशा नंगा रहता है। उसे अच्छी तरह से पता होता है
कि मैं कौन हूं और आदमी होने के नाते मेरी औकात क्या है।
‘धूमिल’ की कई कविताओं में रह-रहकर ‘आदमी’ आ
जाता है और आदमी यह शब्द ‘पुरुष’ और ‘स्त्री’ का प्रतिनिधित्व करता है।
1947 को आजादी मिली और हर एक व्यक्ति खुद को बेहतर बनाने में जूट गया। देश
विभाजन के दौरान आदमीयत धर्मों के कारण दांव पर लगी थी। विभाजन के बाद दो
अलग-अलग राष्ट्र हो गए पर एकता गायब हो गई, हर जगह पर आदमी आदमी को कुचलने
लगा। आजादी के बाद जो सपने प्रत्येक भारतवासी ने देखे थे वह खंड़-खड़ हो गए
और उस स्थिति से निराशा, दुःख, पीडा, मोहभंग, भ्रमभंग से नाराजी के शब्द
फूटने लगे। इन स्थितियों में हर बार इंसानियत, मानवीयता और आदमीयत दांव पर
लगी, वह चोटिल होकर तड़पने लगी तथा उसे तार-तार किया गया उसका शरीर चौराहे
पर टांगा गया। धूमिल की कविता में इसी आदमी का बार-बार जिक्र हुआ है। 'रचनाकर' में इन्हीं विचार और विवेचन के साथ धूमिल की कविता पर आलेख प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक दे रहा हूं। लिंक है -विजय शिंदे का आलेख - धूमिल की कविता में आदमी प्रस्तुत आलेख 'रिसर्च फ्रंट' शोध पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ है उसकी लिंक है - http://www.researchfront.in/02%20APR-JUNE%202013/7%20Dhumil%20ki%20kavita%20me%20aadami%20-%20Dr.pdf
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