सूरसागर
सूर ने कृष्ण को बांधना चाहा।
कृष्ण तो कृष्ण ही था।
अब तक जैसे था वैसे ही रहा।
हवा के लहरों से झूला झूले।
सूर का मन कृष्ण के
वात्सल्य, विरह और भक्ति में डोले।
कृष्ण के विरह में
गोप-गोपियों के आंखों से पानी बहे।
वैसे-वैसे सूर विरह व्यथा वाणी से कहे।
गोप-गोपियों की विरह व्यथा देख।
आंसू पलकों से ढले।
सूर के भी वाणी और आंखों से सूरसागर निकले।
विरह के आंसुओं से झरना फूटा।
कृष्ण भक्ति का सागर नहीं आटा।
विरह-भक्ति को आंखें बंद करके पीया।
फिर भी पूरा हृदय में नहीं समाया।
सूर ने कृष्ण को बांधना चाहा।
कृष्ण तो कृष्ण ही था।
अब तक जैसे था वैसे ही रहा।
सूर चाहते थे कृष्ण को पाना।
कृष्ण भक्ति में 'सूरसागर' बना।
2 टिप्पणियां:
बहुत ही मनोरम कृष्ण भक्ति में सराबोर सुन्दर रचना.टिप्पडी के वर्ड वेरिफिकेशन की हटाएँ.
राजेंद्र जी रचना पसंद आयी धन्यवाद। आगे साहित्य के माध्यम से आपका हमारा संपर्क बना रहेगा।
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