आज जाति-पाति और धर्म के
चलते संपूर्ण सामाजिक जीवन अस्थिरता के काले बादलों से घिर चुका है। जनमानस को भविष्य
में कौनसे दिन देखने पड़ेंगे इसकी चिंता सताने लगी है। ऐसी परिस्थिति में कुछ सालों
से बारिश की कमी के चलते बार-बार दस्तक देनेवाली सूखाग्रस्त स्थिति,
उससे पीड़ित होता किसान वर्ग, लोकतंत्र के रक्षक
केवल हम हैं ऐसा शोर मचानेवाली देश की राजनीतिक पार्टियां और मुझे इससे कुछ फर्क नहीं
पड़ता कहकर पल्लू झाड़नेवाली अनास्थाभरी आम मानसिकता से सारे समाज का जीवन सराबोर हो
चुका है। वर्तमान वास्तविकता यह है कि इन सारी मुश्किलों के चलते सामाजिक, सांस्कृतिक और धर्म को लेकर सामंजस्यवादी स्वर ही संपूर्णता से बिगड़ते जा रहा
है। अनास्था भरी दृष्टि अकाल, प्लेग, भारी
वर्षा, तूफान इन संकटों से भी भयावह है। केवल अपने लाभ के बारे
में सोचने की वृत्ति के कारण स्वार्थी प्रवृत्तियों ने जगह-जगह
पर अपना डेरा जमाया है। अर्थात वर्तमान में अपने आस-पास कम-अधिक रूप से इसी प्रकार के दृश्य दिखते हैं; ऐसी परिस्थिति
में स्वातंत्रता पूर्व काल में दृष्टा महाराजा सयाजीराव की ओर से जनकल्याण के व्रत
का जिंदगीभर पालन किया गया है। महाराजा सयाजीराव के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यों की अलगता और विशेषता ध्यान में रखते हुए वर्तमान
परिस्थितियों में उपायों को ढूंढ़ने का छोटासा प्रयास मैं यहां पर कर रहा हूं। एक दौर
में बहुत बड़े साम्राज्य के कर्ताधर्ता और आधुनिक सुधारवादी राष्ट्र होने का ढिंढ़ोरा
पिटनेवाले ब्रिटिशों को भी अपने सुधारवादी तथा प्रगत विचारों से पीछे छोड़नेवाले अकेले
महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ आधुनिक भारत के शिल्पकार 0है। पिछ...ले सत्तर वर्षों से इस
तेजोमय इतिहास का कुछ-न-कुछ कारणों से इतिहासकार,
विद्वान, अनुसंधाता और लेखकों से पढ़ना शेष रहा
है, उसी अपूर्णता की पूर्ति हम लोग कर रहे हैं। प्रस्तुत आलेख बाबा भांड द्वारा मराठी में लिखा था जिसका हिंदी अनुवाद 'रचनाकार' में प्रकाशित है उसकी लिंक हां पर दे रहा हूं। संपूर्ण आलेख पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां
साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे
मेरे ब्लॉग पर स्वलिखित हिंदी भाषा की रचनाएं हैं, जिसमें समीक्षात्मक आलेख, लेख,अनुवाद और सृजनात्मक रचनाएं हैं। साथ ही इस ब्लॉग पर ई पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य के लिंक भी मौजूद है। आप रचनाओं को पढने के लिए दाएं 'रचनाएं' में जाकर मनपसंद विधा को क्लिक करें। सीधे ब्लॉग पर वह रचना या उसकी लिंक आएगी। लिंक पर दुबारा क्लिक करने पर मूल ई-पत्रिका में प्रकाशित रचना तक आप पहुंच सकते हैं।
गुरुवार, 30 अप्रैल 2020
शनिवार, 18 अप्रैल 2020
'धान के कटोरे में सूखा' के बहाने
‘धान के
कटोरे में सूखा’ यह शिरीष खरे का यात्रा वृत्त है। शिरीष जी एक पत्रकार है, कई
रिर्पोताज और यात्रा वृतांत लिखे हैं। किसानों की आपत्तियां और हालातों को लेकर वे
सामग्री संकलन कर रहे थे, उस दौरान ‘रचनाकार’ में प्रकाशित मेरा आलेख ‘किसान सौत
का बेटा’ और ‘अपनी माटी’ में प्रकाशित ‘फांस’ से उठता सवाल – किसान खेती से मन
क्यों लगाए?’ यह दो आलेख उनके पढने में आए। फिर मेल और फोन पर किसानों के हालतों
पर लगातार बातचीत होती रही। उन्होंने ‘धान के कटोरे में सूखा’ यह यात्रा वर्णन
मुझे पढने के लिए दिया और पूछा कि कैसा है? कहीं मुझसे कुछ छूटा तो नहीं? हालांकि
कृषि प्रधान देश के किसानों की पीडाओं को लेकर जितना लिखे उतना कम है। जहां संजीव
जैसा उपन्यासकार ‘फांस’ में लिख चुका और प्रेमचंद जैसा वैश्विक कथाकार ‘गोदान’ में
किसानों की वास्तविकता पर प्रकाश डालता रहा। सालों से किसानों पर बहुत कुछ लिखा है
और आगे भी लिखा जाएगा फिर भी यह खत्म न होनेवाला विषय है। पीछले बीस-पच्चीस दिनों
से लॉकडाऊन के चलते किसान अपने फलों-सब्जियों एवं अन्य उत्पादों को खेती में ही
दफन करते देख दर्द होता है। उसके लिए एक टमाटर, एक आम, एक अमरूद, एक अंगूर, ... एक
इंसान को दफन करने जैसा है। कोरोना ने जितने इंसानों की जाने ली है उससे भी ज्यादा
कई लोगों के सपनों को भी दफन किया है। अर्थात किसानों के लिए, चाहे वह देश का हो
या दुनिया का आपत्तियों की कमी नहीं है।
खैर शिरीष जी
के सवाल ‘धान के कटोरे में सूखा’ कैसे है? या ठीक से लिख पाया या नहीं? के उत्तर
स्वरूप लिखे मेल और शिरीष खरे के मूल यात्रा वृत्त को लेकर मुझे लगा कि इसे कहीं
एक जगह पर प्रकाशित करना चाहिए। अतः इसे प्रकाशित करने का यह प्रयास। ताकि कुछ
वास्तविकताओं को उजागर किया जा सकता है। वह प्रतिक्रिया और शिरीष खरे का मूल यात्रा वृतांत 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित है, उसकी लिंक यहां पर दे रहा हूं -'धान के कटोरे में सूखा’ के बहाने
गुरुवार, 19 मार्च 2020
महाराजा सयाजीराव : चरित्रसंपन्न, अनासक्त और संप्रभु राजा - बाबा भांड
छत्रपति शाहू महाराजा के कालखंड में बड़े बाजीराव की मराठी सेना ने दिल्ली तक
कुच किया था। उस समय मराठी सेना के सेनापति खंडेराव दाभाडे ने गुजरात में मौजूद
मोगलों को सीधे काठीवाड तक पीछे धकेलने की शूरता दिखाई थी। उस समय उनके साथ
दमाजीराव गायकवाड एक मराठा सरदार थे। वे पुणे जिले हवेली तहसिल के भरे गांव के थे।
आगे चलकर वे खेड तहसिल के दावडी गांव में रहने के लिए गए। उनके वंश के आरंभिक
पुरुष का नाम नंदाजी था। वे भोर रियासत में किलेदार थे। सन 1720 को राक्षसभुवन की लड़ाई
में मराठों ने निजाम को पराजीत किया था। मराठी सेना के साथ नंदाजी का पोता दमाजी
गायकवाड भी था। दमाजी की बहादुरी को देखकर महाराजा शाहू ने दमाजी को शमशेर बहादुर
किताब बहाल किया। इसके बाद खंडेराव दाभाडे इस मराठी सेना के सेनापति ने गुजरात के
मोगलों का पराजय करते हुए उन्हें काठीवाड तक भागने के लिए मजबूर किया। इस जीत में
उनके साथ दमाजीराव गायकवाड के बेटे पिलाजी की मौजूदगी थी। सन 1720 में पिलाजीराव ने मोगलों के कब्जेवाले
सोनगढ़ पर जीत हासिल की। पहाड़ पर किला बनाया और यहीं से गायकवाड परिवार की सत्ता की
स्थापना गुजरात में हुई। आगे चलकर पिलाजीराव ने गुजरात में बडोदा तक मराठी सत्ता
का विस्तार किया। और बडोदा रियासत में गायकवाडों के राज्य का आरंभ हुआ।
उस कालखंड में विदेशों से अंग्रेजी व्यापारी हिंदुस्तान में व्यापार करने के
लिए आ रहे थे। उनके द्वारा व्यापार हेतु
ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापन की गई और कंपनी ने हिंदुस्तान के तटीय इलाकों में
धीरे-धीरे पैर फैलाना शुरू किया। वैसे ही उनका विस्तार गुजरात में भी होने लगा।
गायकवाडों की भी सत्ता गुजरात में विस्तारीत हो रही थी। समय-समय पर इन दो सत्ताओं के
बीच संघर्ष भी होता रहा। सन 1779 में पेशवों की गुजरात में अंग्रेजों के ईस्ट
इंडिया कंपनी के साथ लड़ाई हो गई। उस समय बडोदा के तत्कालीन महाराज फत्तेसिंह
गायकवाड ने ब्रिटिश जनरल गार्ड के साथ दोस्ती का एक कदम आगे बढ़ाया था। पेशवों के
विरोध में एक मराठी सरदार हमें मदत कर रहा है यह ईस्ट इंडिया कंपनी के चालाख
अधिकारियों ने पहचान लिया। ब्रिटिशों ने एक देशी मछली हमारे जाल में फंस रही है यह
देखकर इस मौके का तुरंत लाभ उठाते हुए बडोदा रियासत की ओर दोस्ती और सहयोग हेतु
पहल की।
बाबा भांड द्वारा लिखे मराठी आलेख का यह अनुवाद है। इसे पूर्ण पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - महाराजा सयाजीराव : चरित्रसंपन्न, अनासक्त और संप्रभु राजा
मंगलवार, 17 मार्च 2020
विवेकी राय के साहित्य में नारी शिक्षा
भारत
प्रगतिशील देश है और अब उसके प्रगति की गति तेज हुई है। सामाजिक जीवन में शिक्षा
ही अकेला ऐसा मार्ग है जो प्रत्येक व्यक्ति को सफलता के रास्तों पर लेकर जा सकता
है। स्त्रियां भी समाज का अंग है, अतः उन्हें भी जिंदगी में सफल बनना है,
स्वाभिमानी जीवन जीना है तो शिक्षित होकर आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। उनकी इस प्रकार की आत्मनिर्भरता एक
प्रकार से पूराने सामजिक ढांचे के लिए चुनौती होगी लेकिन व्यापक समाजहित को ध्यान
में रखते हुए ऐसी चुनौती देना पड़ेगा। पुरुषों की एकाधिकारशाही, गलत विचार प्रणाली और गंदी सोच को
चुनौती देना अब आवश्यक बना है। विवेकी राय के साहित्य में स्त्रियों के वैचारिक
परिवर्तन और शिक्षित बनने की प्रक्रिया के आरंभिक दिनों का वर्णन है, जो सभ्यता,
संस्कृति, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता की मांग को उजागर करता है।
समाज के
दो हिस्सों में आधे पुरुष और आधी नारियां रहती है। लेकिन आज भी पुरुष प्रधान
व्यवस्था ने उसे इतना महत्त्व नहीं दिया जितना देना चाहिए था। उसके प्रति परंपरागत
दृष्टि से देखा और सोचा जाता है। अगर सामाजिक विकास में परिपूर्णता लानी है तो नारी को शिक्षा
के साथ अन्य अधिकारों में भी समानता का हकदार बनाना चाहिए। घर में तो
उसे प्रतिष्ठित किया जाता हैं किंतु समाज में नहीं। स्त्रियों के शील
संरक्षण के लिए परदा प्रथा और घर से बाहर न निकलना जैसे नियम बनाए गए। आज वैसी
स्थिति नहीं है फिर भी नारी के प्रति पुरुष की दृष्टि अभी भी बदली नहीं
है।
समाजहित
इसी में है कि नारी की पूनर्प्रतिष्ठा करें। ‘‘नारी को भवतारिणी कहा गया है, जो उचित ही है। पुरुष को अपनी जीवन नौका को
इस भवसागर से पार
करने के लिए स्त्री-रूपी दांड की आवश्यकता अपरिहार्य है।’’1 पुरुष की जन्मदात्री और सहधर्मिनी वही है। अतः उसे शिक्षित
बनाने या प्रतिष्ठित करने में उसे नहीं तो पुरुष के लिए ही लाभदायी है। पारिवारिक और सामाजिक
जिम्मेदारियों को कुशलता से निभाने के लिए उसका शिक्षित होना नितांत
जरूरी है। उसे न केवल शिक्षा में बल्कि सामाजिक व्यवस्था में प्रतिष्ठित
करने की आवश्यकता है। विवेकी राय ने नारी की इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते
हुए शिक्षित, अर्द्धशिक्षित
और अशिक्षित स्त्रियों का चित्रण करते हुए शिक्षा व्यवस्था और नारी के
परस्पर संबंध पर प्रकाश डाला है। संपूर्ण आलेख पढने के लिए 'अपनी माटी' के शिक्षा विशेषांक की इस लिंक को क्लिक करें - विवेकी राय के साहित्य में नारी शिक्षा
मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020
फिल्मी पटकथा लेखन (Script Writing)
फिल्मों के व्यावसायिक और कलात्मक नजरिए से सफल होने
के लिए आधारभूत तत्त्व के नाते कथा, पटकथा और संवादों को बहुत अधिक एहमीयत है। कथा
या कहानी आरंभिक तत्त्व के नाते एक सृजन प्रक्रिया होती है और इसे साहित्यकार
द्वारा जाने-अनजाने अंजाम दे दिया जाता है। सृजन कार्य स्वयं के सुख के साथ समाज
हित के उद्देश्य को पूरा करता है, परंतु इसका पूरा होना किसी आंतरिक प्रेरणा का फल
होता है। लेकिन इन्हीं कहानियों का जब फिल्मी रूपांतर होता है तब उसका मूल फॉर्म
पूरी तरीके से बदल जाता है। एक कहानी की पटकथा लिखना और फिर संवाद स्वरूप में उसे
ढालना व्यावसायिक नजरिए को ध्यान में रखते हुए की गई कृत्रिम प्रक्रिया है। इसे
कृत्रिम प्रक्रिया यहां पर इसलिए कह रहे हैं कि जैसे साहित्यकार कोई रचना
अंतर्प्रेरणा से लिखता है वैसी प्रक्रिया पटकथा लेखन में नहीं होती है, उसे
जानबूझकर अंजाम तक लेकर जाना पड़ता है। पटकथा लेखक के लिए और एक चुनौती यह होती है
कि निमार्ताओं द्वारा बनाई जा रही फिल्में किसी छोटी कहानी पर बनी हो तो भी और
किसी बड़े उपन्यास पर बनी हो तो भी उसे चुनिंदा प्रसंगों के साथ एक समान आकार में
बनाना होता है, ताकि वह दो या ढाई घंटे की पूरी फिल्म बन सके। अर्थात् पटकथा लेखक
का यह कौशल, मेहनत और कलाकारिता है, जिसके बलबूते पर वह पटकथा में पूरा उपन्यास
समेट सकता है और किसी छोटी कहानी में कोई भी अतिरिक्त प्रसंग जोड़े बिना उसको पूरी
फिल्म बना सकता है। फणीश्वरनाथ रेणु जी की ढाई पन्ने की कहानी ‘तीसरी कसम’ (मारे
गए गुलफाम) पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ (1966) और रणजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा
रविवर्मा’ पर बनी फिल्म ‘रंगरसिया’ (2014) दोनों भी परिपूर्ण है। अर्थात् एक पटकथा
का आकार कहानी से बना है और दूसरी पटकथा का आकार व्यापक उपन्यास की धरातल है। इन
दोनों में भी साहित्यिक रूप से फिल्म के भीतर का रूपांतर पटकथा लेखक का कमाल माना
जा सकता है। आवश्यकता भर लेना और अनावश्यक बातों को टालने का कौशल पटकथा लेखन में
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार पटकथा का लेखन और लेखक का कमाल होता है वैसे
ही निर्माता-निर्देशक की परख, पैनापन और चुनाव का भी कमाल होता है। मन्नू भंड़ारी
लिखती है कि "बरसों पहले मेरी कहानी ‘यहीं सच है’ पर बासुदा
(बासु चटर्जी) ने फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा तो मुझे तो इसी बात पर आश्चर्य हो
रहा था कि एक लड़की के निहायत निजी आंतरिक द्वंद्व पर आधारित यह कहानी (इसीलिए जिसे
मैंने भी डायरी फॉर्म में ही लिखा था) दृश्य-माध्यम में कैसे प्रस्तुत की जाएगी
भला? पर बासुदा ने इस पर ‘रजनीगंधा’ (1974) नाम से फिल्म बनाई, जो बहुत लोकप्रिय
ही नहीं हुई, बल्कि सिल्वर जुबली मनाकर जिसने कई पुरस्कार भी प्राप्त किए।" (कथा-पटकथा,
पृ. 9) प्रस्तुत आलेख रचनाकार ई-पत्रिका में प्रकाशित है पूरा आलेख पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - फिल्मी पटकथा लेखन (Script Writing)
रविवार, 19 जनवरी 2020
वैचारिक साहित्य के अनुवाद का महत्त्व
भविष्य में वैश्विक स्तर पर भाषिक तौर से कई बदलाव होने की संभावनाएं बन रही
है। उसका मूल कारण वैश्विकरण है। देश-दुनिया कई मायनों में एक समान स्तर पर काम
करने की मानसिकता से गुजर रहे हैं। आर्थिक और औद्योगिक प्रगति मनुष्य को एक-दूसरे
के पास लेकर आ रही है। इन स्थितियों में आपसी विचार-विमर्श और वैचारिक आदान-प्रदान
के लिए भाष की मदत लेनी पड़ती है। हर एक को देश और दुनिया की सभी भाषा का ज्ञान हो
या कोई एक व्यक्ति एक से ज्यादा भाषाओं में निपुण होगा कहना गलत होगा। ऐसी
स्थितियों में अनुवाद की एहं भूमिका रहती है। भारतीय और वैश्विक साहित्य जगत में
अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अनुवाद के माध्यम से देश-दुनिया का प्रसिद्ध
साहित्य, वैचारिक साहित्य, ज्ञानात्मक साहित्य, तंत्रविज्ञान, विज्ञान और तमाम
प्रकारों की सामग्री हमारे लिए उपलब्ध हो रही है। लेकिन इस अनुवाद की प्रक्रिया
सहज और सरल नहीं है। कई प्रकार की मुश्किलों से पार करता यह कार्य लेखक और अनुवादक
की कड़ी परीक्षा लेता है। इस परीक्षा में सफल होनेवाला व्यक्ति ही सही अनुवाद को
अंजाम तक लेकर जा सकता है। वैचारिक साहित्य के अनुवाद करते समय वैसी ही कई
समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कई प्रकार की मानसिकताओं और दबावों से गुजरना पड़ता
है। निरंतरता अगर खंड़ित हो गई तो दुबारा अनुवाद की गाडी को पटरी पर लाना भी
मुश्किल होता है।
कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है वर्तमान और भविष्य में अनुवाद
के क्षेत्र में साहित्य, वैचारिक साहित्य और इसके अलावा भी अन्य प्रकार की सामग्री
के अनुवाद की असीम संभावनाएं हैं और आवश्यकता भी। यह वैश्विक सामग्री को प्रचारित
और प्रसारित करती है तथा सबको एक साथ विकास के रास्तों पर लेकर जाने की क्षमता
रखती है। संपूर्ण आलेख पढने के लिए 'रचनाकार' ई-पत्रिका के इस लिंक पर क्लिक करें - वैचारिक साहित्य के अनुवाद का महत्त्व - डॉ. विजय शिंदे
सदस्यता लें
संदेश (Atom)