शनिवार, 18 अप्रैल 2020

'धान के कटोरे में सूखा' के बहाने


‘धान के कटोरे में सूखा’ यह शिरीष खरे का यात्रा वृत्त है। शिरीष जी एक पत्रकार है, कई रिर्पोताज और यात्रा वृतांत लिखे हैं। किसानों की आपत्तियां और हालातों को लेकर वे सामग्री संकलन कर रहे थे, उस दौरान ‘रचनाकार’ में प्रकाशित मेरा आलेख ‘किसान सौत का बेटा’ और ‘अपनी माटी’ में प्रकाशित ‘फांस’ से उठता सवाल – किसान खेती से मन क्यों लगाए?’ यह दो आलेख उनके पढने में आए। फिर मेल और फोन पर किसानों के हालतों पर लगातार बातचीत होती रही। उन्होंने ‘धान के कटोरे में सूखा’ यह यात्रा वर्णन मुझे पढने के लिए दिया और पूछा कि कैसा है? कहीं मुझसे कुछ छूटा तो नहीं? हालांकि कृषि प्रधान देश के किसानों की पीडाओं को लेकर जितना लिखे उतना कम है। जहां संजीव जैसा उपन्यासकार ‘फांस’ में लिख चुका और प्रेमचंद जैसा वैश्विक कथाकार ‘गोदान’ में किसानों की वास्तविकता पर प्रकाश डालता रहा। सालों से किसानों पर बहुत कुछ लिखा है और आगे भी लिखा जाएगा फिर भी यह खत्म न होनेवाला विषय है। पीछले बीस-पच्चीस दिनों से लॉकडाऊन के चलते किसान अपने फलों-सब्जियों एवं अन्य उत्पादों को खेती में ही दफन करते देख दर्द होता है। उसके लिए एक टमाटर, एक आम, एक अमरूद, एक अंगूर, ... एक इंसान को दफन करने जैसा है। कोरोना ने जितने इंसानों की जाने ली है उससे भी ज्यादा कई लोगों के सपनों को भी दफन किया है। अर्थात किसानों के लिए, चाहे वह देश का हो या दुनिया का आपत्तियों की कमी नहीं है।
खैर शिरीष जी के सवाल ‘धान के कटोरे में सूखा’ कैसे है? या ठीक से लिख पाया या नहीं? के उत्तर स्वरूप लिखे मेल और शिरीष खरे के मूल यात्रा वृत्त को लेकर मुझे लगा कि इसे कहीं एक जगह पर प्रकाशित करना चाहिए। अतः इसे प्रकाशित करने का यह प्रयास। ताकि कुछ वास्तविकताओं को उजागर किया जा सकता है। वह प्रतिक्रिया और  शिरीष खरे का मूल यात्रा वृतांत 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित है, उसकी लिंक यहां पर दे रहा हूं -'धान के कटोरे में सूखा’ के बहाने


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