मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

फिल्मी पटकथा लेखन (Script Writing)


फिल्मों के व्यावसायिक और कलात्मक नजरिए से सफल होने के लिए आधारभूत तत्त्व के नाते कथा, पटकथा और संवादों को बहुत अधिक एहमीयत है। कथा या कहानी आरंभिक तत्त्व के नाते एक सृजन प्रक्रिया होती है और इसे साहित्यकार द्वारा जाने-अनजाने अंजाम दे दिया जाता है। सृजन कार्य स्वयं के सुख के साथ समाज हित के उद्देश्य को पूरा करता है, परंतु इसका पूरा होना किसी आंतरिक प्रेरणा का फल होता है। लेकिन इन्हीं कहानियों का जब फिल्मी रूपांतर होता है तब उसका मूल फॉर्म पूरी तरीके से बदल जाता है। एक कहानी की पटकथा लिखना और फिर संवाद स्वरूप में उसे ढालना व्यावसायिक नजरिए को ध्यान में रखते हुए की गई कृत्रिम प्रक्रिया है। इसे कृत्रिम प्रक्रिया यहां पर इसलिए कह रहे हैं कि जैसे साहित्यकार कोई रचना अंतर्प्रेरणा से लिखता है वैसी प्रक्रिया पटकथा लेखन में नहीं होती है, उसे जानबूझकर अंजाम तक लेकर जाना पड़ता है। पटकथा लेखक के लिए और एक चुनौती यह होती है कि निमार्ताओं द्वारा बनाई जा रही फिल्में किसी छोटी कहानी पर बनी हो तो भी और किसी बड़े उपन्यास पर बनी हो तो भी उसे चुनिंदा प्रसंगों के साथ एक समान आकार में बनाना होता है, ताकि वह दो या ढाई घंटे की पूरी फिल्म बन सके। अर्थात् पटकथा लेखक का यह कौशल, मेहनत और कलाकारिता है, जिसके बलबूते पर वह पटकथा में पूरा उपन्यास समेट सकता है और किसी छोटी कहानी में कोई भी अतिरिक्त प्रसंग जोड़े बिना उसको पूरी फिल्म बना सकता है। फणीश्वरनाथ रेणु जी की ढाई पन्ने की कहानी ‘तीसरी कसम’ (मारे गए गुलफाम) पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ (1966) और रणजीत देसाई के उपन्यास ‘राजा रविवर्मा’ पर बनी फिल्म ‘रंगरसिया’ (2014) दोनों भी परिपूर्ण है। अर्थात् एक पटकथा का आकार कहानी से बना है और दूसरी पटकथा का आकार व्यापक उपन्यास की धरातल है। इन दोनों में भी साहित्यिक रूप से फिल्म के भीतर का रूपांतर पटकथा लेखक का कमाल माना जा सकता है। आवश्यकता भर लेना और अनावश्यक बातों को टालने का कौशल पटकथा लेखन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार पटकथा का लेखन और लेखक का कमाल होता है वैसे ही निर्माता-निर्देशक की परख, पैनापन और चुनाव का भी कमाल होता है। मन्नू भंड़ारी लिखती है कि "बरसों पहले मेरी कहानी ‘यहीं सच है’ पर बासुदा (बासु चटर्जी) ने फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा तो मुझे तो इसी बात पर आश्चर्य हो रहा था कि एक लड़की के निहायत निजी आंतरिक द्वंद्व पर आधारित यह कहानी (इसीलिए जिसे मैंने भी डायरी फॉर्म में ही लिखा था) दृश्य-माध्यम में कैसे प्रस्तुत की जाएगी भला? पर बासुदा ने इस पर ‘रजनीगंधा’ (1974) नाम से फिल्म बनाई, जो बहुत लोकप्रिय ही नहीं हुई, बल्कि सिल्वर जुबली मनाकर जिसने कई पुरस्कार भी प्राप्त किए।" (कथा-पटकथा, पृ. 9) प्रस्तुत आलेख रचनाकार ई-पत्रिका में प्रकाशित है पूरा आलेख पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - फिल्मी पटकथा लेखन (Script Writing)

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