गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां

आज जाति-पाति और धर्म के चलते संपूर्ण सामाजिक जीवन अस्थिरता के काले बादलों से घिर चुका है। जनमानस को भविष्य में कौनसे दिन देखने पड़ेंगे इसकी चिंता सताने लगी है। ऐसी परिस्थिति में कुछ सालों से बारिश की कमी के चलते बार-बार दस्तक देनेवाली सूखाग्रस्त स्थिति, उससे पीड़ित होता किसान वर्ग, लोकतंत्र के रक्षक केवल हम हैं ऐसा शोर मचानेवाली देश की राजनीतिक पार्टियां और मुझे इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कहकर पल्लू झाड़नेवाली अनास्थाभरी आम मानसिकता से सारे समाज का जीवन सराबोर हो चुका है। वर्तमान वास्तविकता यह है कि इन सारी मुश्किलों के चलते सामाजिक, सांस्कृतिक और धर्म को लेकर सामंजस्यवादी स्वर ही संपूर्णता से बिगड़ते जा रहा है। अनास्था भरी दृष्टि अकाल, प्लेग, भारी वर्षा, तूफान इन संकटों से भी भयावह है। केवल अपने लाभ के बारे में सोचने की वृत्ति के कारण स्वार्थी प्रवृत्तियों ने जगह-जगह पर अपना डेरा जमाया है। अर्थात वर्तमान में अपने आस-पास कम-अधिक रूप से इसी प्रकार के दृश्य दिखते हैं; ऐसी परिस्थिति में स्वातंत्रता पूर्व काल में दृष्टा महाराजा सयाजीराव की ओर से जनकल्याण के व्रत का जिंदगीभर पालन किया गया है। महाराजा सयाजीराव के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यों की अलगता और विशेषता ध्यान में रखते हुए वर्तमान परिस्थितियों में उपायों को ढूंढ़ने का छोटासा प्रयास मैं यहां पर कर रहा हूं। एक दौर में बहुत बड़े साम्राज्य के कर्ताधर्ता और आधुनिक सुधारवादी राष्ट्र होने का ढिंढ़ोरा पिटनेवाले ब्रिटिशों को भी अपने सुधारवादी तथा प्रगत विचारों से पीछे छोड़नेवाले अकेले महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ आधुनिक भारत के शिल्पकार 0है। पिछ...ले सत्तर वर्षों से इस तेजोमय इतिहास का कुछ--कुछ कारणों से इतिहासकार, विद्वान, अनुसंधाता और लेखकों से पढ़ना शेष रहा है, उसी अपूर्णता की पूर्ति हम लोग कर रहे हैं। प्रस्तुत आलेख बाबा भांड द्वारा मराठी में लिखा था जिसका हिंदी अनुवाद 'रचनाकार' में प्रकाशित है उसकी लिंक हां पर दे रहा हूं। संपूर्ण आलेख पढने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें -  महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

'धान के कटोरे में सूखा' के बहाने


‘धान के कटोरे में सूखा’ यह शिरीष खरे का यात्रा वृत्त है। शिरीष जी एक पत्रकार है, कई रिर्पोताज और यात्रा वृतांत लिखे हैं। किसानों की आपत्तियां और हालातों को लेकर वे सामग्री संकलन कर रहे थे, उस दौरान ‘रचनाकार’ में प्रकाशित मेरा आलेख ‘किसान सौत का बेटा’ और ‘अपनी माटी’ में प्रकाशित ‘फांस’ से उठता सवाल – किसान खेती से मन क्यों लगाए?’ यह दो आलेख उनके पढने में आए। फिर मेल और फोन पर किसानों के हालतों पर लगातार बातचीत होती रही। उन्होंने ‘धान के कटोरे में सूखा’ यह यात्रा वर्णन मुझे पढने के लिए दिया और पूछा कि कैसा है? कहीं मुझसे कुछ छूटा तो नहीं? हालांकि कृषि प्रधान देश के किसानों की पीडाओं को लेकर जितना लिखे उतना कम है। जहां संजीव जैसा उपन्यासकार ‘फांस’ में लिख चुका और प्रेमचंद जैसा वैश्विक कथाकार ‘गोदान’ में किसानों की वास्तविकता पर प्रकाश डालता रहा। सालों से किसानों पर बहुत कुछ लिखा है और आगे भी लिखा जाएगा फिर भी यह खत्म न होनेवाला विषय है। पीछले बीस-पच्चीस दिनों से लॉकडाऊन के चलते किसान अपने फलों-सब्जियों एवं अन्य उत्पादों को खेती में ही दफन करते देख दर्द होता है। उसके लिए एक टमाटर, एक आम, एक अमरूद, एक अंगूर, ... एक इंसान को दफन करने जैसा है। कोरोना ने जितने इंसानों की जाने ली है उससे भी ज्यादा कई लोगों के सपनों को भी दफन किया है। अर्थात किसानों के लिए, चाहे वह देश का हो या दुनिया का आपत्तियों की कमी नहीं है।
खैर शिरीष जी के सवाल ‘धान के कटोरे में सूखा’ कैसे है? या ठीक से लिख पाया या नहीं? के उत्तर स्वरूप लिखे मेल और शिरीष खरे के मूल यात्रा वृत्त को लेकर मुझे लगा कि इसे कहीं एक जगह पर प्रकाशित करना चाहिए। अतः इसे प्रकाशित करने का यह प्रयास। ताकि कुछ वास्तविकताओं को उजागर किया जा सकता है। वह प्रतिक्रिया और  शिरीष खरे का मूल यात्रा वृतांत 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित है, उसकी लिंक यहां पर दे रहा हूं -'धान के कटोरे में सूखा’ के बहाने