सरकारें
बदली, पार्टियां बदली पर देशी किसान के हालत नहीं बदल रहे हैं। आए दिन और
एक आत्महत्या की खबरें आ रही है। करें भी तो क्या करें, यह सिलसिला कब
रूकेगा? कहां रूकेगा? या युं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा? प्रश्न यह
उठता है कि इसे मरना कैसे कहां जाए? इसे आत्महत्या कैसे कहे?... यह तो
हत्याएं है! यह तो खून है जो दिन दहाड़े हमारे देश के किसानों का हो रहा है।
‘खेती हमारे देश का आधार है’ कितना सपाट और असंवेदनशील वाक्य है। हजारों ने
लाखों बार लिखा, उच्चारित किया।
हमने शेखचिल्ली की कहानी बचपन में
पड़ी थी जिसमें वह जिस डाल को काटना चाह रहा है उस पर ही बैठकर कुल्हाड़ी
चला रहा है। अब हमें नहीं लगता कि देश का आधार बनी खेती और किसानी को हम
कटवाने पर तुले हैं? वास्तविकता यह है कि हमारे देश में किसान अब खेती नहीं
करना चाहता है। उसके सामने विकल्प उपलब्ध नहीं इसलिए वह मजबूरी में खेती
कर रहा है। उसे अगर पूछे कि तुम अपने बच्चों को और अगली पीढ़ी को क्या
बनाओगे तो वह साफ शब्दों में कहेगा कि किसानी छोड़कर उसे मैं कुछ भी
बनाऊंगा। किसानों की यह मंशाएं वास्तविकता में उतर रही है।
यह आलेख रचनाकार ई-पत्रिका में प्रकाशित है। राजनीतिक और लोकतत्र की उपेक्षा सहते किसानी पर प्रकाश डालनेवाला पूरा आलेख पढने के लिए लिंक दे रहा हूं - आगे पढ़ें: रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - किसान : सौत का बेटा
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