अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत - खंड -3
मूल लेखक – डॉ.
नरेंद्र दाभोळकर, अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे
अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत – खंड 3 (अनुवाद कथेतर गद्य)
लेखक डॉ. नरेंद्र दाभोळकर, अनुवादक - विजय
शिंदे, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रथम – 2015, मूल्य – 150 रु., पृष्ठ – 170, ISBN: 978-81-267-2794-0
डॉ. नरेंद्र दाभोळकर किसी परिचय के मोहताज नहीं है। अंधविश्वास उन्मूलन के लिए अपना जीवन दांव पर लगाना और उसके लिए अंत तक लडाई करना कोई छोटी बात नहीं है। वे केवल खुद लडे नहीं तो महाराष्ट्र में एक ऐसा बडा संगठन खडा किया जो केवल महाराष्ट्र के लिए नहीं तो पूरे भारत में खडा होने की जरूरत है।
हमारे देश समाज में ऐसे कई झुठ और पाखंड खडे किए हैं कि जिससे आम आदमी का शोषण हो रहा
है, उसे लूटा जा रहा है। किसी को
लगता नहीं कि हमारे देश की प्रगति में ये सारे पाखंड बाधक है? डॉ. नरेंद्र दाभोळकर जी को लगा और अपने निजी जीवन के
सुख और भोगों को त्याग कर एक आदमी विवेक और वैज्ञानिक दृष्टि के साथ समाज में वह दृष्टि
लाने के लिए प्रयास करता रहा। कई दोस्त, साथी-संगी, लोग जुडते गए और एक बडा कारवां बना। अंधविश्वास
उन्मूलन का कानून महाराष्ट्र में उनके बलिदान के पश्चात् बना। जिसके लिए जिंदगी भर
लडते रहे वह मृत्यु के बाद बनाने की अनुमति दी महाराष्ट्र सरकार ने। सभी राजनीतिक लोग
और दल उनके कानून को स्वीकारते-मानते तो थे, इसकी जरूरत महसूस करते थे परंतु अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए चुप थे। परंतु
वे भूल चुके थे कि इससे सामाजिक हित दांव पर लग रहा है। शायद डॉ. दाभोळकर जी के मृत्यु के पश्चात् महाराष्ट्र सरकार को शर्म महसूस हो गई और
हरकत में आकर विधान सभा और विधान परिषद के दोनों सदनों में इस को अनुमति देकर कानूनी
स्वीकृति दी। अंधविश्वास उन्मूलन कानून को कानूनी स्वीकृति। हमारे देश में बहुत बडी
विडंबना यह है कि किसी भी अच्छे कार्य के लिए कानूनी ठप्पे की आवश्यकता होती है और
गैरकानूनी कार्य बिना किसी ठप्पे के कानूनी इजाजत और सरकारी मान्यता के तहत चलते है!
डॉ. नरेंद्र दाभोळकर जी ने लगभग एक दर्जन
किताबें इसी विषय से जुडकर लिखी, ‘साधना’ पत्रिका को चलाया, ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन वार्तापत्र’को चलाया। जहां संभव हो वहां लिखते रहें, बोलते रहें, भाषण
करते रहें; केवल सामाजिक हित के लिए। परिवार का सोचा नहीं,
बच्चों का सोचा नहीं, अपने बारे में भी सोचा नहीं।
ऐसे कई लोग उनके साथ जुडते गए जो अपने बारे में सोचना छोडकर समाज का भला चाहते हैं।
केवल एक ही उद्देश्य समाज की बंद आंखें खुल जाए। मूल मराठी किताब जिसमें डॉ.
दाभोळकर जी के संपूर्ण तत्त्व, विचार और सिद्धांतों
का सार है, वह है – ‘तिमिरातुनी तेजाकडे’ अंधेरे से प्रकाश की ओर; जिसमें विचार, आचार और सिद्धांत तीन खंड है। हिंदी जगत्
की प्रमुख प्रकाशन संस्था राजकमल ने इसे हिंदी में लाकर बहुत बडा सामाजिक कार्य किया
है। मूल किताब को हिंदी के भीतर तीन खंडों में अलग-अलग रूप से
प्रकाशित किया है। अंधविश्वास उन्मूलनः विचार (खंड -
1), अंधविश्वास उन्मूलनः आचार (खंड -
2), अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत (खंड
- 3) यह तीन किताबें 27 फरवरी, 2015 को भारत के उपराष्ट्रपति डॉ. हामिद अंसारी के शुभ हाथों
से उपराष्ट्रपति भवन में के कॉन्फरंस हॉल में विमोचित की गई। इस प्रकाशन के लिए हिंदी
के प्रसिद्ध समीक्षक नामवर सिंह, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त मराठी
के लेखक भालचंद्र नेमाडे, राजकमल के प्रमुख अशोक माहेश्वरी,
अलिंद माहेश्वरी, सांसद हुसेन दलवाई, गांधी स्मारक की संचालिका मणिमाला जी, तीनों किताबों
के संपादक डॉ. सुनिल कुमार लवटे, अनुवादक
डॉ. विजय शिंदे, डॉ. चंदा गिरीश, डॉ. प्रकाश कांबळे,
अंधश्रद्धा निर्मूलन के प्रमुख अविनाश पाटिल, सुधिर
निबांळकर और डॉ. नरेंद्र दाभोळकर जी की बेटी मुक्ता दाभोळकर के
साथ तमाम मीडिया कर्मी और विज्ञानवादी विवेकवादी प्रतिष्ठित उपस्थित थें।
डॉ. नरेंद्र दाभोळकर ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निमूर्लन समिति’ के कार्य के जरिए न सिर्फ महारष्ट्र
में अपितु समूचे भारत वर्ष में प्रगतिमूलक आचार, विचार और सिद्धांत
के जरिए चितंक और कृतिशील सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में परिचित है। सन्
1989 में समिति की स्थापना की और उसके आधार पर महाराष्ट्र के कोने-कोने में अंधविश्वास के खिलाफ अलख जगाया। वैसे महाराष्ट्र में समाजसुधारकों
की और सुधारवादी विचार, उपक्रम और गतिविधियों की लंबी परंपरा
है। उसके चलते महाराष्ट्र में प्रगतिशील माहौल महात्मा ज्योतिबा फुले, सुधारककार गोपाल गणेश आगरकर, लोकहितवादी गोपाल हरि देशमुख,
महर्षि विठ्ठल रामजी शिंदे, महर्षि धोंडों केशव
कर्वे, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ.
बाबासाहेब आंबेडकर, संत गाडगेबाबा, स्वातंत्रवीर सावरकर, प्रबोधनकार ठाकरे आदि ने अंधविश्वास
उन्मूलन में बडा योगदान दिया है। धर्म, ईश्वर जातिभेद,
स्त्री-पुरुष समानता, स्त्री
शिक्षा, विषमता, शोषण, रूढि-परंपरा आदि के संदर्भ में इन सुधारकों ने बडी भूमिका
निभाई है। इसके चलते जाति-धर्म निरपेक्षता, स्वातंत्र, समता, बंधुता,
लोकतंत्र, विज्ञाननिष्ठा, विवेकवाद जैसे जीवनमूल्य यहां अपनी जडे जमा पाए हैं। यहीं कारण है कि भारत
वर्ष में महाराष्ट्र की पहचान अग्रणी, कृतिशील राज्य के रूप में
हैं।
स्वातंत्र्योत्तर काल
में इस परंपरा का निर्वाह करते हुए डॉ.
नरेंद्र दाभोळकर की दूरदृष्टि, संगठन कौशल,
कार्य की निरंतरता, उपक्रमशीलता, संयोजन कुशलता के कारण महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने विवेकवादी
विज्ञाननिष्ठ समाज रचना का सपना देखा। सभी जाति, धर्म,
तबके के कार्यकर्ताओं का निर्माण, वैचारिक रूप
से समान संगठनों की एकता, पत्रकारिता, प्रकाशन,
माध्यम, प्रबोधन, लोकजागरण
- क्या नहीं किया डॉ. नरेंद्र दाभोळकर जी ने। यहीं
कारण है कि वे धर्मांध, जातिवादी, पाखंडी
तत्त्वों के लक्ष बने और अज्ञात बंधूकधारियों ने उनकी 20 अगस्त,
2013 में निर्मम हत्या कर दी। हत्यारों का लक्ष्य डॉ. दाभोळकर के संगठन और विचार को कुचलना था। हुआ उलटा। उनकी हत्या की प्रतिक्रिया
समूचे भारत में उठती रही। दाभोळकर जी की मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व महाराष्ट्र अंधश्रद्धा
निर्मूलन समिति ने सन् 1995 से की जा रही जादू-टोना प्रतिबंध अधिनियम पारित करने की मांग के प्रति सरकार की निष्क्रियता,
उपेक्षा और उदासीनता को उजागर करते हुए ‘कृष्णपत्रिका’ का प्रकाशन किया था। हत्या से उभरे लोकक्षोभ के आगे घुटने टेककर महाराष्ट्र
सरकार अंततः ‘महाराष्ट्र नरबलि और अन्य
अमानुष, अनिष्ट एवं अघोरी प्रथा तथा
जादू-टोना प्रतिबंधक एवं उन्मूलन अधिनियम – 2013’ अध्यादेश को अमल में ले आई। पर उसके
लिए डॉ. नरेंद्र दाभोळकर को शहीद होना पडा। इसमें अंधश्रद्धा
निर्मूलन समिति को बडा नुकासान हुआ, वह शायद भर सकता है?
परंतु महाराष्ट्र और देश का जो नुकसान हुआ है वह कभी नहीं भरा जा सकता
है।
अंधविश्वास उन्मूलन को
लेकर प्रकाशित विचार, आचार
और सिद्धांत के तीनों खंडों के माध्यम से संपूर्ण भारत में दाभोळकर जी के विचारों को
लेकर जाने का समिति का प्रामाणिक प्रयत्न है। ‘अंधविश्वास उन्मूलनः सिद्धांत (खंड - 3) के भीतर
निम्न विषयों पर सैद्धांतिक पक्ष रखा गया है -
·
परमेश्वर
·
धर्म
·
विश्वास-अंधविश्वास
·
मेरा आध्यात्मिक आकलन
·
स्त्रियां और अंधविश्वास निर्मूलन
·
महाराष्ट्र के समाजसुधारक और अंधविश्वास निर्मूलन
·
धर्मनिरपेक्षता
·
विवेकवाद
·
परिशिष्ट
अंधविश्वास के तिमिर से
विवेक और विज्ञान के तेज की ओर ले जाने वाली यह तीनों पुस्तकें परंपरा का तिमिर भेद
तो है ही, विज्ञान लक्ष्य भी है।
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