"ओ मजदूर! ओ मजदूर!!
तू सब
चीजों का कर्ता, तू हीं सब चीजों से दूर
ओ
मजदूर! ओ मजदूर!!
*****
श्वानों को मिलता
वस्त्र दूध, भूखे बालक अकुलाते हैं।
मां की
हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं।
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युवती की लज्जा बसन
बेच, जब ब्याज चुकाए जाते हैं।
मालिक
जब तेल फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
पापी
महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण।"
दिनकर जी
प्रस्तुत काव्यपंक्तियां कई संदर्भों में सामने रखी जाती है। मूलतः प्रगतिवादी युग
में सामाजिक समानता, अंधाधुंधी, आक्रोश, शोषण, दयनीयता, दुःख, पीड़ा, पूंजीवादिता
के विरोध में उठी आवाज मजदूरों तथा मेहनतकशों के प्रति संवेदना प्रकट करती है,
उसके प्रति सहानुभूति जताती है और उनमें परिवर्तन की अपेक्षा करती है। कवि की चाहत और सामाजिक वास्तव में जमीन आसमान का फर्क है। समाज
के लिए और समाज के भीतर के नैतिक तथा अनैतिक कार्यों के लिए कहा जा सकता है यह एक मदमस्त
हाथी है और वह अपनी ही धून बाजार में चल रहा है। कोई कुछ भी कहे या पत्थर मारे इसकी
मोटी चमड़ी पर विशेष फर्क नहीं पड़ रहा है। हां हो सकता है उसके गति में थोड़ा फर्क आ
जाए। कुछ दिनोंपरांत वहीं मस्ती और डिलडौल। हालांकि ‘हाथी चले बाजार कुत्ते
भौंके हजार’कहावत
रूप में हाथी से जूड़ा यह संदर्भ हमेशा अच्छे अर्थ में इस्तेमाल होता है, लेकिन मैंने
यहां पर सामाजिक अधपतन के लिए इसका इस्तेमाल कर मानो हाथी पर अन्याय किया हो। खैर दिनकर
जी की ऊपरी काव्यपंक्तियों को कोट करने के पीछे मेरा उद्देश्य कोई और है। आज मंचीय
कवि और सामाजिक विड़ंबना पर कठोर आघात करनेवाले कवियों में हरिओम पंवार का नाम आता है
और उनकी कई कविताएं दिनकर, धूमिल, निराला,
मुक्तिबोध... जैसे कवियों की विरासत को आगे बढ़ा
रही है। इन कवियों की अपेक्षा हरिओम पंवार की कविताओं के संदर्भ और ओजस्विता को अलग
भी किया जा सकता है परंतु बेबाकी, सामाजिक वास्तव की कड़वाहट की
पोल खोलना, वीरत्व के भाव, आवाहन,
चुनौतियां, प्रस्तुति शैली आदि भारतीय समाज में
पल रहे आक्रोश को प्रकट करती है और यह आक्रोश असमानता, सरकारी
नीतियां, पूंजीवादिता, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, भ्रष्टाचार, कालाधन, झूठ-फरेब, अनैतिकताएं, मक्कारी, एहसानफरामोशी,
नकारात्मकता... आदि के प्रति है। पूरा आलेख पढने के लिए रचनाकार के इस युआरएल पर क्लिक करें http://www.rachanakar.org/2017/04/blog-post_65.html
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