पुस्तक समीक्षा - देहरी के पार
‘देहरी
के पार’ विवेकी राय का उपन्यास है। चिर-परिचित ढंग और और अपनी उपन्यास
शैली पर अड़िग रहकर लिखा गया उपन्यास। अपनी करुण गाथा का चित्रण कर आंतरिक
दुःख को हल्का करने का प्रयास। उपन्यास में खुद विवेकी राय अपना दुःख,
दर्द, व्याकुलता, आक्रोश... सामने वाले को बता रहे हैं और सामने वाला भी
मूक सुनते जा रहा है। सुनने वाले के सिर्फ कान जगे हैं। शरीर के बाकी अवयव
अचेतन अवस्था में अपना अस्तित्व खो बैठे हैं। आंखों के आगे बार-बार अंधेरा
छाने लगा है। निरंतर बहते आंसू, बार-बार आंखों की ओर उठती मुट्ठियां लेखक
के दुःख में शरीक होना चाहती हैं। पुत्र वियोग में जलते-भुनते, तड़पते,
आकुल-व्याकुल होते पिता की करुण गाथा का वर्णन करने वाला उपन्यास ‘देहरी के
पार’ हिंदी का किसी लेखक द्वारा पुत्र वियोग में लिखा जाने वाला उल्लेखनीय
उपन्यास है। समय की असोचनीय खिलवाड़ विवेकी का अंतर-बाह्य झकझोर देती है।
पारिवारिक व्यवस्था चकनाचूर होती है। परिवार की जिम्मेदारियों का भार अपने
बड़े पुत्र ज्ञानेश्वर पर सौंप निश्चित होकर साहित्य सेवा में जुटे विवेकी
राय अकल्पनीय, अविश्वसनीय हादसे से आक्रंदित होते हैं। शिवरात्रि के दिन
शिव-पूजा करके वापस लौटने वाले शिवभक्त बच्चे का परमात्मा में विलीन होना
नकारते विवेकी राय भगवान की ओर प्रश्नांकित दृष्टि से ताक रहे हैं। अनुत्तर
यात्रा, अस्तित्व, आभास, माया और उत्तर यात्रा इन पांच अध्यायों में
विभाजित उपन्यास पाठक को अकल्पनीय घटना का वास्तव होना बताता है। आगे पढ़ें: रचनाकार: पुस्तक समीक्षा - देहरी के पार
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