साहित्य की दुनिया बहुत बड़ी है। इस दुनिया में
साहित्यकार और समीक्षकों की कतार भी बहुत लंबी है। विभिन्न भाषाओं को लेकर आंकना
शुरू करें तो किसी भी लिखने वाले के अस्तित्व की बात बहुत ही छोटी लगती है, चाहे
वह लेखक हो या समीक्षक। हिंदी भाषा का विचार करें तो विश्व स्तर पर उसका दृश्य स्वरूप
धुंधलाते आकाश-सा लगता है और उसके भीतर लेखक-समीक्षकों के नाम टिम-टिमाते तारे-से
नजर आते हैं। फिर भी केवल और केवल हिंदी साहित्य और भाषा के छोटे-बड़े, है-नहीं है
ऐसों को अगर गिनना शुरू करें तो उसकी दुनिया छोटी नहीं है, बहुत बड़ी है। इस हिंदी
दुनिया का भला करने के लिए हर एक व्यक्ति ने सैनिक बन योगदान दिया है। लेखक और
समीक्षक उनमें से एक सैनिक है। उन्हें हम चाहे तो सैनिक कह सकते हैं, सरदार कह
सकते हैं, सेनापति कह सकते हैं.... या और बहुत कुछ। लेकिन पत्थर की सफेद लकीर के
समान यह सच है कि हिंदी साहित्य को बनाने का काम इन दोनों ने किया है। इनमें हम
कौन हैं? मैं कौन हूं? हमारी भूमिकाएं क्या है? हमारा दायित्व क्या है? इसके पहले
हमने कुछ सही किया? आज जिन रास्तों पर चल रहे हैं, जिन रास्तों पर चलना चाहते हैं
उसके अनुकूल, भले के लिए कुछ कदम उठाएं? या हमारे मन में कुछ अलग मंशाएं हैं?...
या हम शेर की खाल ओढ़े सियार बन केवल डिंगे हांकने में लगे हैं?
हमें नहीं लगता कि विश्विद्यालयों और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की कृपा से चल
रहे देश में जितने भी साहित्यिक अनुसंधान के केंद्र हैं वहां पर कलापक्षीय
अनुसंधान की वाट लगी है? कलापक्षीय आयामों पर न के बराबर अनुसंधान हो रहा है।
प्रतिशत के नाते आंकना चाहे तो 99.99 % विश्वविद्यालयीन साहित्यिक अनुसंधान कार्य
कलापक्ष को छोड़कर चल रहा है। ऐसा होना साहित्य के लिए कोई खतरा निर्माण नहीं कर
रहा है पर अनुसंधात्मक गतिविधियों का खात्मा जरूर कर रहा है। साहित्यिक दुनिया को
समीक्षक आधार दे रहे हैं। समीक्षक साहित्यिक कृतियों का सही रूप में कलापक्षीय
मूल्यांकन कर उसकी खुबियों और कमियों को आंक रहे हैं, अर्थात् भला कर रहे हैं।
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि शोधार्थी और शोध-निर्देशक क्या कर रहे हैं?
साहित्य के कलापक्षीय अनुसंधात्मक गतिविधियों पर प्रकाश डालने वला आलेख 'सम्यक' पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। यहां उसका एक ही परिच्छेद है। पूरे आलेख की लिंक आगे दे रहा हूं। साहित्यिक अनुसंधान और कलापक्ष - डॉ.विजय शिंदे