सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

'लेखनी' में 'सच कहूं' कविता

     दोस्तों बहुत दिनों से आपसे मुलाखात नहीं और आपके कई महत्त्वपूर्ण लेखों, कविताओं, कहानियों एवं विचारों को मिस कर रहा हूं। पर आपसे आशा है कि आप मुझे दुबारा बात एवं संवाद करने के लिए समय देंगे। फिलहाल आपको इतना कह सकता हूं कि एक अहं काम को अंजाम तक पहुंचानी की कोशिश कर रहा हूं, अतः समय की कमी के चलते आपसे थोडा कटा हूं।
      इसी दौरान 'सच कहूं' नामक एक कविता 'लेखनी' ई-पत्रिका के कविता आज और अब में  में प्रकाशित हो गई है उसकी लिंक FEBURARY-2014-HINDI ( लेखनी: LEKHNI )आपके लिए दे रहा हूं। साथ ही यह कविता ब्लॉग पर भी जोडी है।



सच कहूं
  

सच कहूं तुम्हारी बातों से
‘डर’ लगता है।
तुम उम्र बार-बार
पूछती हो,
गरीब, संवेदनशील, भावुक मन,
बूढा होकर बैठने लगता है।


घबडा कर, अपने आप से
कहीं मैं,
मेरी उमर,
सावला चेहरा,
गंभीर विचार,
मेरा आस-पास
और मेरे संस्कार
तुम्हें पसंद नहीं
ऐसा लगता है।

चाहता हूं आजादी दूं
दुबारा सोचने की।
कहीं ऐसा न हो कि
समय चला जाने के बाद
आफत न आए,
तुम पर पछताने की।

कृपा करो मेरा डर
सच या झूठ में
तब्दील करने की।