शनिवार, 31 अगस्त 2013

दलित विमर्श की कसौटी पर 'मुर्दहिया'

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      संसार में मनुष्य का आगमन और बुद्धि नामक तत्व के आधार पर एक-दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने की अनावश्यक मांग सुंदर दुनिया को बेवजह नर्क बना देती है। सालों-साल से एक मनुष्य मालिक और उसके जैसा ही दूसरा रूप जिसके हाथ, पैर, नाक, कान... है वह गुलाम, पीडित, दलित, कुचला। दलितों के मन में हमेशा प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों? पर उनके ‘क्यों’ को हमेशा निर्माण होने से पहले मिटा दिया जाता है। परंतु समय की चोटों से, काल की थपेडों से पीडित भी अपनी पीडाओं को वाणी दे रहा है। एक की गुंज सभी सुन रहे हैं और अपना दुःख भी उसी तरीके का है कहने लगे हैं। शिक्षा से हमेशा दलितों को दूर रखा गया लेकिन समय के चलते परिस्थितियां बदली और चेतनाएं जागृत हो गई। एक, दो, तीन... से होकर शिक्षितों की कतार लंबी हो गई और अपने अधिकारों एवं हक की चेतना से आक्रोश प्रकट होने लगा। कइयों का आक्रोश हवा में दहाड़ता हुआ तो किसी का मौन। अभिव्यक्ति और प्रकटीकरण का स्वरूप अलग रहा परंतु वेदना, संघर्ष, प्रतिरोध, नकार, विद्रोह, आत्मपरीक्षण सबमें बदल-बदल कर आने लगा। ईश्वर से भेजे इंसान एक जैसे, सबके पास प्रतिभाएं एक जैसी। अनुकूल वातावरण के अभाव में दलितों की प्रतिभाएं धूल में पडी सड़ रही थी लेकिन धीरे-धीरे संघर्ष से तपकर निखरने लगी। ज्ञान का शिवधनुष्य हाथ में थाम लिया और एक-एक सीढी पर लड़खड़ाते कदम ताकत के साथ उठने लगे, अपने हक और अधिकार की ओर। एक के साथ दो और दो के साथ कई। संख्या बढ़ी और धीरे-धीरे मुख्य प्रवाह के भीतर समावेश। यह प्रक्रिया दो वाक्य या एक परिच्छेद की नहीं, कई लोगों के आहुतियों के बाद इस मकाम पर पहुंचा जा सका है। प्रत्येक दलित की कहानी अलग और संघर्ष भी अलग। उसके परतों को बड़े प्यार से उलटकर उनकी वेदना, विद्रोह, नकार और संघर्ष को पढ़ना बहुत जरूरी है ताकि प्रत्येक दलित-शोषित-गुलाम व्यक्ति के मूल्य को आंका जा सके। भारतीय साहित्य की विविध भाषाओं में बड़ी प्रखरता के साथ दलितों के संघर्ष की अभिव्यक्ति हुई है और हो रही है। हिंदी साहित्य में देर से ही सही पर सार्थक और आत्मपरीक्षण के साथ दलितों के संघर्ष का चित्रण होना उनके उज्ज्वल भविष्य का संकेत देता है। एक की चेतना हजारों को जागृत करती है एक का विशिष्ट आकार में ढलना सबके लिए आदर्श बनता है। जागृति के साथ आदर्शों को केंद्र में रखकर अपने जीवन के प्रयोजन अगर कोई तय करें तो सौ फिसदी सफलता हाथ में है। और आदर्श अपनी जाति-बिरादरी का हो तो अधिक प्रेरणा भी मिलती है। संघर्ष और चोट से प्राप्त सफलता कई गुना खुशी को बढ़ा भी देती है।

मूल समीक्षा 'रचनाकार' ई-पत्रिका में प्रकाशित है उसकी लिंक दे रहा हूं। लिंक को क्लिक करें सीधे 'मुर्दहिया' (आत्मकथन - डॉ.तुलसी राम) पर लिखी समीक्षा पर पहुंचेंगे। लिंक आगे पढ़ें: रचनाकार: पुस्तक समीक्षा - दलित विमर्श की कसौटी पर ‘मुर्दहिया’  प्रस्तुत समीक्षा गद्यकोश में भी प्रकाशित हुई है उसकी लिंक - मुर्दहिया / तुलसी राम / समीक्षा

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

बादल के बहाने भारत का वर्तमान और भविष्य



प्रकृति के महत्त्वपूर्ण अंगों में बादल, पर्वत, नदी, जमीन, मिट्टी, पहाड़, पौधें, फूल, फल, अग्नि, सूर्य, चंद्र... आदि का समावेश होता है। हमारे आस-पास जो भी होता है वह प्रकृति की देन है। मनुष्य हमेशा प्रकृति की गोद में अपने आपको सुरक्षित मानता है और उसी के बलबूते पर अपना विकास करता है। विज्ञान के लिए भी मूलाधार प्रकृति ही है पर आज इंसान ने हर जगह पर प्रकृति में हस्तक्षेप किया है तो परिणाम तो भूगतने ही पडेंगे। भारत में भी और विश्व स्तर भी आबादी इतनी बढ़ रही है कि इंसान घास-फूस हो गया है और कीडे-मकौडे की मौत मारा जा रहा है। प्राकृतिक मौत स्वीकार्य है पर दुर्घटनाओं एवं आपदाओं में आई मौत हमेशा पीडा देती है और उसे स्वीकारना भी मुश्किल होता है। केदारनाथ के बहाने हो या अन्य किसी बहाने, जो आपदाएं आती है उससे मनुष्य अंदर बाहर हील जाता है, पीडित होता है, दुःखी होता है। ऐसी घटनाओं को ध्यान में रखकर उचित कदम उठाने की जरूरत है। भारत जैसे भरपूर और अमर्याद आबादी वाले देश में तो इसकी पहल होना बहुत जरूरी है। अमरिका जैसे विकसित राष्ट्र की कम आबादी और उचित इंतजामों के चलते बडे शहरों के भयानक हादसों में भी मानवीय हानि कम होती है। जापान और अन्य सावध देशों में भी यहीं स्थिति है। सोचना पडेगा वे देश करते हैं तो हम क्यों नहीं? उनसे हमें कुछ सीख प्राप्त हो सकती है तो थोडा प्रयास कर देखे। प्रबल इच्छाशक्ति, उचित पहल, राजनीतिक मनोकामना, सरकारी ईमानदारी और इंसान की सोच में परिवर्तन हो तो मुमकिन है। सामान्य तौर पर सोचे तो भारत में तीर्थस्थलों की शांति नष्ट हो चुकी है, चाहे किसी भी जाति-धर्म के हो, उसका कारण एक ही है ऐसे स्थलों में मानव का अवांछित हस्तक्षेप। इंसान जिन स्थलों को पवित्र और पाक मानता है वहीं जाकर सबसे ज्यादा गंदगी फैलाता है। जहां इंसान पहुंचा वहां प्रकृति की शांति और पवित्रता नष्ट हुई तथा कुछ न कुछ अघटित के संकेत मिलेंगे ही।

मिडलैंड यु.के. से प्रकाशित 'लेखनी' ई-पत्रिका की लिंक आपको दे रहा हूं जिसके 'विचार' स्तंभ में 'बादल के बहाने भारत का वर्तमान और भविष्य' आलेख छपा है।  लिंक है http://www.lekhni.net/index2.html 
AUGUST-2013-HINDI
 आशा है आपको लेख पसंद आएगा।


डॉ. विजय शिंदे

'लेखनी' में प्रकाशित प्रस्तुत आलेख पाठको के लिए भेज रहा हूं कारण लेखनी का नया अंक निकले के बाद प्रस्तुत आलेख आपको पढने मिलेगा नहीं।

विचार

बादल के बहाने भारत का वर्तमान और भविष्य

     प्रकृति के महत्त्वपूर्ण अंगों में बादल, पर्वत, नदी, जमीन, मिट्टी, पहाड़, पौधें, फूल, फल, अग्नि, सूर्य, चंद्र... आदि का समावेश होता है। हमारे आस-पास जो भी होता है वह प्रकृति की देन है। मनुष्य हमेशा प्रकृति की गोद में अपने आपको सुरक्षित मानता है और उसी के बलबूते पर अपना विकास करता है। विज्ञान के लिए भी मूलाधार प्रकृति ही है पर आज इंसान ने हर जगह पर प्रकृति में हस्तक्षेप किया है तो परिणाम तो भूगतने ही पडेंगे। भारत में भी और विश्व स्तर भी आबादी इतनी बढ़ रही है कि इंसान घास-फूस हो गया है और कीडे-मकौडे की मौत मारा जा रहा है। प्राकृतिक मौत स्वीकार्य है पर दुर्घटनाओं एवं आपदाओं में आई मौत हमेशा पीडा देती है और उसे स्वीकारना भी मुश्किल होता है। केदारनाथ के बहाने हो या अन्य किसी बहाने, जो आपदाएं आती है उससे मनुष्य अंदर बाहर हील जाता है, पीडित होता है, दुःखी होता है। ऐसी घटनाओं को ध्यान में रखकर उचित कदम उठाने की जरूरत है। भारत जैसे भरपूर और अमर्याद आबादी वाले देश में तो इसकी पहल होना बहुत जरूरी है। अमरिका जैसे विकसित राष्ट्र की कम आबादी और उचित इंतजामों के चलते बडे शहरों के भयानक हादसों में भी मानवीय हानि कम होती है। जापान और अन्य सावध देशों में भी यहीं स्थिति है। सोचना पडेगा वे देश करते हैं तो हम क्यों नहीं? उनसे हमें कुछ सीख प्राप्त हो सकती है तो थोडा प्रयास कर देखे। प्रबल इच्छाशक्ति, उचित पहल, राजनीतिक मनोकामना, सरकारी ईमानदारी और इंसान की सोच में परिवर्तन हो तो मुमकिन है। सामान्य तौर पर सोचे तो भारत में तीर्थस्थलों की शांति नष्ट हो चुकी है, चाहे किसी भी जाति-धर्म के हो, उसका कारण एक ही है ऐसे स्थलों में मानव का अवांछित हस्तक्षेप। इंसान जिन स्थलों को पवित्र और पाक मानता है वहीं जाकर सबसे ज्यादा गंदगी फैलाता है। जहां इंसान पहुंचा वहां प्रकृति की शांति और पवित्रता नष्ट हुई तथा कुछ न कुछ अघटित के संकेत मिलेंगे ही।

      देश बढ़ रहा है और दुनिया भी बढ़ रही है। इस होड़ में सबसे ज्यादा हमले प्रकृति पर ही किए जा रहे हैं। विविध मंचों, पत्र-पत्रिकाओं एवं साहित्य में इस पर बार-बार चिंता जताई गई है। प्रकृति के भीतर हरियाली हमारी संवेदनाओं को जैसे जगाती है वैसे ही जैसे इंसान की नजर ऊपर उठती है तो बादलों के विविध रूप हमें आकर्षित करते हैं। हिंदी साहित्य और कविता के क्षेत्र में बादल पर केंद्रित कई कविताएं लिखी पर यहां मेरा उद्देश्य उसके माध्यम से मानवीयता, इंसानीयत, आपत्ति व्यवस्थापन, जाति-धर्म, सूखा, एकता, राष्ट्रप्रेम, समता, सर्वधर्म समभाव, प्रकृति की लूट, सभ्यता और संकृति का तहस-नहस होना आदि पर प्रकाश डालना है। उत्तराखंड़ के पर्वतीय इलाके में बादलों का फटना और उससे केदारनाथ के आस-पास के इलाके में जान-माल का हजारों-करोडों में नुकसान होना मनुष्य के सामने एक बादल कई सवाल खडे कर देता है।


1. बारिश
      बादल पहले भी थे, अब भी है और भविष्य में भी रहेंगे, बारिश का भी वैसे ही है। बादल का फटना भी जारी रहेगा, बारिश का कहर और पर्वत का गिरना भी जारी रहेगा। पर बादल और बारिश हमें पूछ रहे हैं कि ‘भीड़ बनाकर बेपरवाह रहने की इजाजत तो हमने नहीं दी थी।’ भारत की करोड़ो की रिकार्डतोड़ आबादी और हुजूम-भीड़ बनाने का तरिका गैरमतलब है। शिर्डी, पंढ़रपुर, त्र्यंबकेश्वर, अमरनाथ, केदारनाथ, हृषिकेश, वाराणसी, जगन्नाथपुरी, बालाजी... जैसे तीर्थस्थलों में रोज-रोज भक्तों की भीड़ इकठ्ठा होती है, बिना किसी आवश्यक इंतजाम के, भगवान भरौसे। बिना किसी मतलब के। कबीर सोलहवीं शति में कहकर गए ‘मोके कहां ढूंढ़े बंदे’ मैं तो तुम्हारे अंदर हूं पर हम अपने अंतर में झांके तो भारतीय कैसे कहे जाएंगे? केदारनाथ में बरसी बारिश और बहे पत्थर, पहाड़। प्रश्न उठता है यह बादल आए कहां से।
     "कहां से आए बादल काले?

      कजरारे मत वाले!
      शूल भरा जग, धूल भरा नभ,
      झुलसी देख दिशाएं निष्प्रभ
      सागर में क्या सो न सकें यह
      करुणा के रख वाले?"
                    (कविता – ‘कहां से आए बादल काले’ – महादेवी वर्मा)



       हालांकि आखों के आंसू और बादलों के पानी का नजदीकी संबंध है। विविध भाव-भावनाओं को लेकर आता है दूसरों के दिलों में संवेदनाएं जागृत करने वाला भाव ‘करुणा’ भी बादलों से संबंध स्थापित करता है। प्राकृतिक और शास्त्रीय आधार पर बादल कैसे भी किसी भी रूप में निर्माण हो परंतु जैसे खुशी को लेकर आता है वैसे दुःख और पीडा को भी। जरूरी है भविष्य में सावधानी बरते।

2. सूखा
       सूखे का कारण भी बादल ही और उसका न बरसना। बादल इंसान तो नहीं कि कहे तो बरसे और कहे तो रूके। प्रकृति के अनुकूल परिवेश और उसका समतोल उसको नियंत्रित करता है या बनाए रखता है। अगर इंसान होने के नाते हम अनियंत्रित हुए तो बादलों से कौनसे मुंह हम नियंत्रण की अपेक्षा कर रहे हैं। महाराष्ट्र ने पिछले दो साल से जो भोगा है; विशेष रूप से मराठवाड़े ने, वह दयनीय और दर्दनाक है। सूखे की मार इतनी जबरदस्त पड़ी कि सारी बनी-बनाई खेती और फलों के बगीचे नष्ट हो गए अब इसे दुबारा निर्माण करना हो तो सालों लगेंगे। अनाज वाली फसलें इस साल नहीं तो अगले साल उग सकती है पर फलों के बगीचे वाले पेड़ तो संभव नहीं। इससे किसानों की कमर टूट गई है। पिछले दस सालों में कई भारतीय किसानों ने कर्ज तले आत्महत्याएं की। जिस देश को कृषि प्रधान देश कहने में हम थकते नहीं, वहां एक किसान का मरना और आत्महत्या करना भी अपने घर की गमी जैसा है पर हमारी सारी संवेदनाएं पत्थर हो चुकी है। पास-पड़ौस की घटनाएं हमें अपनी लगती नहीं और उस पर हम सोचना भी नहीं चाहते। एक जगह पर सूखा, दूसरी जगह पर अनावश्यक बारिश क्या सूचित करता है। प्राकृतिक विविधता है तो इंसान अपना दिमाग वहां पर लगाएं। नदी जोड़ प्रकल्प कहां गायब हो गए; क्यों रूके। भारत राज्यों में बंटा देश और उन राज्यों में अलग-अलग पक्ष-पार्टी की सरकारें बिना माने संपूर्ण देश क्यों नहीं माना जाता। एक व्यापक और केंद्रीय योजना क्यों नहीं बनती। कोई योजना बनने से पहले हजारों दलाल उसे लूटने के लिए तैयार होते हैं। रेल, रास्ते, बिजली, पानी... जैसी मूल बातों को राष्ट्रीय स्तर पर ईमानदारी से विकसित करें तो भारत का कोई सानी नहीं। फिर बादलों को कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी -

     "बरस जा रे, बरस जा ओ दुनिया के
      सुख संबल।
      पड़े हैं छाती चीर कर
      नाले-नदी सूने।"
         (कविता – ‘उठे बादल, झूके बादल’ – हरिनारायण व्यास)

       प्रकृति में अपने-आप बैलंस होगा। विकास हो पर प्रकृति को पूछकर, उसकी इजाजत लेकर, उसके नफे-नुकसान को ध्यान में रखकर। ध्यान रहे इस दुनिया में अपना कुछ है नहीं, जो है वह सारा का सारा प्रकृति का है।

3. धर्म-जाति और द्वेष
       प्राकृतिक विविधता जैसे, वैसे ही धर्म और जातिगत विविधता, गर्व करने लायक। पर फिलहाल यह भी हमारे देश की एकता पर प्रश्न चिह्न निर्माण करती है। लगता है धर्म-जाति का द्वेष देश की एकता पर काले बादल मंड़रा रहा है। धर्म-जाति के अनावश्यक प्रेम में आदमी अंधा होता है और सारी इंसानीयत तार-तार कर देता है। जो बात तीर्थ स्थलों के अनावश्यक भीड़ की वैसे ही धर्म-जाति के तहत अनावश्यक भीड़ की, अंधेपन की। आजादी के पहले भी और बाद में भी ऐसी स्थितियां कई बार निर्माण हो गई जिसमें मानवीयता को कटघरे में खड़ा किया गया।

     "काले बादल जाति द्वेष के,
      काले बादल विश्व क्लेष के,
      काले बादल उठते पथ पर
      नव स्वतंत्रता के प्रवेश के!
      X  X  X
      देश जातियों का कब होगा,
      नव मानवता में रे एका,
      काले बादल में कल की,
      सोने की रेखा!"
          (कविता – ‘काले बादल’ – सुमित्रानंदन पंत)

       ठीक है भूतकाल में जो भी हुआ वह घट चुका है, बदला तो जाएगा नहीं पर घटनाओं का पूनर्मूल्यांकन कर भविष्य में वह पूनरावृत्त न हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। देश में कई जातियां और धर्म है उसे माने, पर चिपककर रहना गैरजरूरी है। जरूरत है जाति-धर्म विहिन व्यवहार की। प्राचीन परंपराएं और संस्कृतियां मिट रही है; अतः दहलिज को पार करते ही अपने निजी अस्तित्व का चोला उतार कर आए और सामाजिक जिम्मेदार व्यक्ति बने। हमारी एक कृति कितनों का लाभ करा रही है सोचे, नहीं सोचे कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर कम से कम इतना तो सोचा जा सकता है कि हमारी एक कृति से किसी का नुकसान न हो।

4. परिवर्तन
      प्रगति का स्थायी तत्व है परिवर्तन। रोज नई सोच, नया विचार, नई कृति। अच्छे में सबसे अच्छा, विकास में सबसे अधिक विकास, मानवीयता में अधिक मानवीयता, प्रेम में सबसे अधिक प्रेम हो। इंसानीयत, मानवीयता, एकता, राष्ट्रप्रेम, समता, सर्वधर्म समभाव... सबसे अच्छा हो। इंसान दर इंसान बदला जा सकता है। देश दुनिया के बारे में टिप्पणी करना सहज होता है कारण उसमें हम अपने आपको मानते नहीं? अर्थात् परिवर्तन और अच्छे की जरूरत भी महसूसते नहीं। अतः देश दुनिया का सोचने से पहले व्यक्ति अपने भीतर परिवर्तन कर ऐसे हादसें न हो और इन जगहों से दूर रहे के लिए ‘मैं’ क्या कर सकता हूं सोचे। मानसून के उतरने से और बादलों के बरसने से सारी प्रकृति में परिवर्तन होता है तो घटनाओं के गुजरने से इंसान में परिवर्तन अपेक्षित है।

     "जहरी खाल पर
      उतरा है मानसून
      भिगो गया है
      रातों रात सबको
      इनको
      उनको
      हमको
     आपको
     मौसम का पहला वरदान
     पहुंचा है सभी तक...।"
           (कविता – ‘मानसून उतरा है’ – नागार्जुन)

       बस जरूरी है प्रकृति से पाए प्रत्येक वरदान को अपने हाथों में बड़े प्यार से संभाले। बुद्धि, भाषा, वाणी, विज्ञान... हजारों वरदान हैं, उन्हें अंजुलियों में संभालकर भविष्य का सोचे तो परिवर्तन जरूर होगा। समय-समय पर जो गलतियां हो गई उन पर शंकाएं उपस्थित कर, विवाद कर इंसान को जागृत होना पड़ेगा।

     "समय की शंकाओं पर विवाद करो
      समाधान सोचकर अलख जगाओ।
      स्व उत्थान से ही नवयुग आता है
     औ’ कल्पित स्वर्ग सच हो जाता है
     निद्रा है टूटेगी, तीव्र घात करो
     कोमल अंगों पर वज्रपात करो।"
               (कविता – ‘निद्रा है टूटेगी’ – अमरिता तन्मय)

निष्कर्ष
       हमारा देश जिसे सोने की चिडिया कहा गया, वैसे ‘सोने को बहुतों ने लूटा है’ पर जो भी बचा है उसको ध्यान में रखते हुए विकास को बनाए रखना भी जरूरी है। सबसे पहली जरूरत है बढ़ती आबादी और भीड़ को काबू में करने की, समय रहते सजग होने की और बुनियादी निर्णय लेने की। धर्म, जाति, राजनीति से ऊपर उठ देश को केंद्र में रखकर पहल करने की आवश्यकता है। जब समय हाथ से निकल जाएगा तो पछताने से कोई लाभ नहीं। बादल के माध्यम से देश, दुनिया, मानवीयता, इंसान, प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति... के बारे में व्यापक चिंतन और चर्चा हो और इंसान सही रास्ते पर चले यहीं अपेक्षा।

       प्रकृति सबसे ताकतवर है महाकाल रूप में। ईश्वर हो न हो पर प्रकृति जरूरी है। इंसान की सुन्न आंखें उसका रौद्र रूप केवल देख सकती है। जरूरत है मिन्नतों की अपेक्षा, ईश्वर भरौसे बिना रहे आंखें खोल अपनी सुरक्षा के बारे में सोचने की। केदारनाथ जैसी सारी घटनाएं-विपदाएं आह्वान है और बिना सुरक्षा के इंतजाम किए भगवान भरौसे वहां या वैसी जगहों पर जाना खतरों से भरा है। हमारी सुरक्षा का ठेका ईश्वर या प्रकृति ने थोडे ही लिया है। हमारे देश में फैशन बन चुका है कि सबकुछ हम करते हैं और उंगली उठाते है ईश्वर पर। बेचारा मूर्ति से बाहर आकर जवाब नहीं दे सकता ना। अगर मूर्ति से बाहर आ जाता तो थप्पडों और घुसों से हमें लाल-पीला करने में कोई कसर नहीं छोडता। सरकार को दोष देना, ईश्वर को दोष देना बडा आसान बन गया है। बेवजह की भीड, तीर्थ यात्राएं, मंदिरों के आसपास होम हवन से बचे सामान का कचरा और गंदगी फेंकना, प्रकृति पर आक्रमण करना कोई इंसान से सीखे। खुद हजारों अपराध कर भगवान और प्रकृति को कटघरे में खडा करना अन्यायकारक है। रक्षा का आह्वान किया जा सकता है पर वह ईश्वर को नहीं तो भीतरी सजगता वाले शिव को।