मंगलवार, 18 जून 2013

आधारहीन किसानों का खेती से पलायन 'मूठमाती'



आधारहीन किसानों का खेती से पलायन 'मूठमाती' 
भारत देश की पहचान खेती है और वर्तमान युग में सबसे ज्यादा उपेक्षा भी खेती की ही की जा रही है। अतः किसान और किसान परिवार की नई पौध की मानसिकता बदल रही है, न किसान और न बेटा खेती और मिट्टी में अपना जीवन तबाह करने के पक्ष में है। मराठी के प्रसिद्ध ग्रामीण लेखक भीमराव वाघचौरे जी के कहानी संग्रह 'मूठमाती' के बहाने इसका मूल्यांकन किया है। कहानी संग्रह की विशेषता यह है कि उसके केंद्र में बैल है अर्थात् पूरे संग्रह की कहानियों में नायक की भूमिका में बैल है। 'शुरूआत' ई-पत्रिका में प्रस्तुत आलेख प्रकाशित हो चुका है उसकी लिंक आपके लिए दे रहा हूं। लिंक - आधारहीन किसानों का खेती से पलायन ‘मूठमाती’ आधारहीन किसानों का खेती से पलायन 'मूठमाती ...  प्रस्तुत आलेख 'रिसर्च फ्रंट' ई-पत्रिका के अक्तूबर-दिसंबर के अंक में 'प्राचीन आधारहीन किसानों का खेती से पलायन 'मूठमाती' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, उसकी भी लिंक यहां पर दे रहा हूं - http://www.researchfront.in/04%20OCT-DEC%202013/9_shinde%20hindi.pdf

बुधवार, 5 जून 2013

'तकलीफ', 'तुम्हारा रोना', 'कोई लडकी' और 'आपको भी'




'तकलीफ', 'तुम्हारा रोना', 'कोई लडकी' और 'आपको भी' नव्या ई-पत्रिका  में प्रकाशित चार कविताएं हैं। मनुष्य हमेशा प्रेम करता है और उसके जीवन में प्रेम को अहं स्थान भी है। ऐसे ही कुछ संवेदनशील, भावुक क्षणों की अभिव्यक्ति इन कविताओं में है। आपको कविताएं पसंद आएंगी। कविता की लिंक यहां पर दे रहा  हूं उसे क्लिक कर मूल कविताओं तक आप पहुंच सकते हैं। लिंक  http://www.nawya.in/hindi-sahitya/ इस लिंक पर कविताओं का दिखना बंद हुआ है, अतः पाठकों की सुविधा के लिए यह चारों कविताएं निचे दे रहा हूं -

तकली 

तुम्हें तकलीफ देकर
खुद भी तकलीफ पाता हूं।
आंसू तो तुम्हारे
निकलते हैं,
बह मैं जाता हूं।
रोती तुम हो
बिखर मैं जाता हूं।

यह कैसी बीमारी है ?
भीतर-बाहर जहां भी ढूंढू,
तुम्हें ही पाता हूं।
                                                     

तुम्हारा रोना 

मेरा मनसुबा नहीं था,
तुम्हें तकलिफ देना।
मौज-मस्ती कर चाहता था,
थोडा सुख पाना।

मजाक-मस्ती से
सचमुच तुम रोने लगी
और, और....
तुम से जिहादा मुझे
तकलिफ होने लगी।

पूछो नाक्यों ?
तुमने पूछा
दोस्त क्यों ?
मेरे दिल से आवाज निकली
तुम शरीर से मुझसे हो
बहुत दूर।
इसीलिए तुम्हारे रोने पर,
नजदीक खिंचकर
न समझा सकता हूं,
न प्यार कर सकता हूं।
तुम्हारा सर सीने से लगा कर,
न आंसू पोंछ सकता हूं।
गीले-गर्म आंसू से,
गुलाबी होठों के....
स्पर्श से,
न शिकायत सुन सकता हूं।

इसीलिए हे प्रिये,
बता रहा हूं,
बहुत-बहुत ज्यादा....
दुःख देकर गया,
रूह के पास होकर भी
शरीर से दूर होना।
मेरे बिन अकेले-अकेले
तुम्हारा रोना।
                                                 

कोई लड़की

सोचा नहीं था,
कभी ऐसा भी सपना।
कोई लड़की,
मुझे प्यार देगी इतना।

शद्बों का पुजारी हूं।
भावनाओं को,
समझ सकता हूं।
सूक्ष्म अर्थ,
बारिकी से,
पकड़ सकता हूं।

परंतु,
मैं तुमसे प्रेम करती हूंमें
कौन-सी ताकद,
भावना, अर्थ है
पता नहीं था।
मुझे कोई लड़की,
इतना प्यार करेगी ?
यह सोचा नहीं था।

हे देवी ! शुक्रिया,
जिंदगी में आप
खूशियां लेकर आई।
अनछुए, अनजाने,
अपरिचित सुखों को,
मुझ पर
बरसा कर गई।
                                          

आपको भी

आपसे पूछ कर
खुशीऔरकामयाबी।
घंटों सफर कर,
मिली थी अभी-अभी।

मैं धन्य हुआ,
उनको भेजा मेरे पास।
दोस्त से इतना प्रेम,
दोनों अमूल्य रत्न त्याग
अपनों का ध्यास।

मैंने भी
उन दोनों को भेजा,
आपके पास।
उन दोनों से
सुख, सम्मान और सबकुछ मिले
आपको भी।
                                            





रविवार, 2 जून 2013

अंतर्प्रेरणा और अभिव्यक्ति


अंतर्प्रेरणा और अभिव्यक्ति 
साहित्य समाज से जुडा है और समाज के सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों का साहित्य के भीतर प्रकटीकरण होता है। आज साहित्य अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है जो हम प्रत्यक्ष वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते हैं वह साहित्य के द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। समय गुजरने के बाद उसे पढ़ सकते हैं, अगर पिछला लिखा हुआ गलत लग रहा है तो दुरुस्त कर, परिवर्तन कर पक्का बना लेते हैं। अंततः उसे प्रकाशनार्थ भेज देते हैं। और यह प्रकाशन छोटे-छोटे आलेखों से लेकर बडे-बडे उपन्यास, प्रबंध तक का होता है। साहित्य की तमाम विधाओं में विश्व के सारे भाषाओं के लेखक भरपूर लेखन कर रहे हैं। प्रश्न उठता है क्यों लेखन कर रहे हैं? कौन पढ़ रहा है? पर इतिहास के भीतर की हजारों घटनाएं बता देती हैं कि साहित्य से समाजक्रांतियां हो चुकी हैं। लिखित सामग्री से प्रेरित होकर समाज जागृत हो चुका है और अपने आजादी की लडाई भी जीत चुका है, जीत रहा है। किताबें पुरानी होने के बावजूद भी उनमें छीपा विचारधन पाठकों को आकर्षित करता है और अपने जिंदगी को किताबी विचारधन से रंगा देता है। जिंदगी बनने के बाद जब वह अपना मूल्यांकन करने लगता है तब उसे पता चलता है कि इस किताब, विचार, वाक्य, कविता, कहानी, उपन्यास... लेखक, कवि ने... मेरे जीवन पर प्रभाव डाला है; अतः आज मैं इस मकाम पर हूं। अर्थात् अपने लिखे-कहे से किसी की जिंदगी बनती है तो क्यों नहीं लिखे!

     प्रस्तुत आलेख 'लेखनी' ई-पत्रिका के जुन 2013 के चौपाल में प्रकाशित हो चुका है आपको यहां पर पत्रिका की लिंक दे रहा हूं आप चौपाल में आलेख पढ सकते हैं। लिंक है chaupal - LEKHNI-लेखनी
JUNE-2013-HINDI
                                                                                             






'लेखनी' में प्रकाशित प्रस्तुत आलेख पाठको के लिए भेज रहा हूं कारण लेखनी का नया अंक निकले के बाद प्रस्तुत आलेख आपको पढने मिलेगा नहीं।







चौपाल
डॉ.विजय शिंदे
अंतर्प्रेरणा और अभिव्यक्ति



साहित्य समाज से जुडा है और समाज के सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों का साहित्य के भीतर प्रकटीकरण होता है। आज साहित्य अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है जो हम प्रत्यक्ष वाणी द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते हैं वह साहित्य के द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। समय गुजरने के बाद उसे पढ़ सकते हैं, अगर पिछला लिखा हुआ गलत लग रहा है तो दुरुस्त कर, परिवर्तन कर पक्का बना लेते हैं। अंततः उसे प्रकाशनार्थ भेज देते हैं। और यह प्रकाशन छोटे-छोटे आलेखों से लेकर बडे-बडे उपन्यास, प्रबंध तक का होता है। साहित्य की तमाम विधाओं में विश्व के सारे भाषाओं के लेखक भरपूर लेखन कर रहे हैं। प्रश्न उठता है क्यों लेखन कर रहे हैं? कौन पढ़ रहा है? पर इतिहास के भीतर की हजारों घटनाएं बता देती हैं कि साहित्य से समाजक्रांतियां हो चुकी हैं। लिखित सामग्री से प्रेरित होकर समाज जागृत हो चुका है और अपने आजादी की लडाई भी जीत चुका है, जीत रहा है। किताबें पुरानी होने के बावजूद भी उनमें छीपा विचारधन पाठकों को आकर्षित करता है और अपने जिंदगी को किताबी विचारधन से रंगा देता है। जिंदगी बनने के बाद जब वह अपना मूल्यांकन करने लगता है तब उसे पता चलता है कि इस किताब, विचार, वाक्य, कविता, कहानी, उपन्यास... लेखक, कवि ने... मेरे जीवन पर प्रभाव डाला है; अतः आज मैं इस मकाम पर हूं। अर्थात् अपने लिखे-कहे से किसी की जिंदगी बनती है तो क्यों नहीं लिखे!

लेखक के मन में हजारों सवाल, हजारों अंतर्प्रेरणाएं होती हैं जो कागज पर उतरने के लिए, अभिव्यक्त होने के लिए उमड़ रही होती हैं। जैसे ही उचित मौका मिलता है तब लबालब होकर अपने भीतर छीपी बातें तूफान के साथ प्रकट होती है, कागजों पर। समीक्षा जगत् के भीतर इसे प्रेरणा, प्रतिभा, दैवी शक्ति चाहे जो भी कुछ नाम दिया हो पर यह प्रकट होना अद्भुत ही होता है। जब अभिव्यक्ति का दौर शुरू होता है तब प्रसिद्धि, पैसा... जैसे अधम हेतु उसके पास फटकते भी नहीं। लेखकों को मानो किसी भूत ने झपट लिया हो, वैसी ही अपनी धून, अपनी फकिरी में देश, दुनिया को भूलकर अपने अस्तित्व को भूलाकर ईश्वरीय ताकत से समा बांध लेता है। मूलयवान कृति को जन्म देता है, उसे पढ़ता है और चकित भी होता है। उसे भी विश्वास नहीं होता कि मैंने यह लिखा है, मैं ऐसे भी लिख सकता हूं! धून से जब वह बाहर आकर कृति को देखना शुरू करता है तब वह सामान्य आदमी होता है, और सामान्य आदमी की नजर से देखना शुरू करता है तब चकित होना भी लाजमी है। कागज रूप में जो भी उसके सामने मूल्यवान लिखित चीजें पडी होती है वह उसकी नहीं तो समाज की मल्कियत होती है। उसे देख समाज तक पहुंचाने की छटपटाहट भी शुरू होती है। लेखकों द्वारा लिखा हुआ समाज के लिए खाद होता है, समाज के हर हिस्से, कोने-कोने और इंसानों के रोम-रोम को सिंचित करने की ताकत भी उसमें होती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के भीतर बैठे एक लेखक का अभिव्यक्त होना मानव हीत में है।

आधुनिक जमाने के भीतर प्रकटीकरण के कई साधन हैं, उन्हे आजमाकर उनके भीतर की उमड़-घूमड़ बाहर निकलनी चाहिए; अपनी भाषा, अपनी वाणी और अपनी अभिव्यक्ति शैली में। आज-कल कोई भी भाषा, वाणी और अभिव्यक्ति शैली अछूत नहीं है। आप कहते जाए सुनने के लिए लाखों की भीड़ खडी है। आज नहीं तो कल आपको सुना जाएगा, पढा जाएगा। लेखकों के मन में भी यहीं होता है, अतः अंतर्प्रेरणाओं का प्रकटीकरण होता है, उसे बांधा जाता है और प्रसिद्ध भी किया जाता है। भारत की विविध भाषाओं के लेखकों का लेखन कमाई का धंधा नहीं है, कुछ प्रतिशत छोडे तो बाकी सारे लेखकों का जीने का आधार दूसरा है और लेखन केवल समाजहीत और आत्माभिव्यक्ति को लेकर करते हैं। विश्व की दूसरी व्यावसायिक भाषाओं की जैसे- अंग्रेजी की स्थिति अलग है। वहां लेखन व्यवसाय है पर जब अभिव्यक्ति का दौर चल रहा होता है तब देशी क्या विदेशी क्या सारे लेखक अपने आत्मा को आजाद छोड़कर उसके झौकों पर सवांर होते हैं वह जहां लेकर जाएंगे वही जाते हैं। फिर रचना की पूर्णता के बाद कलापक्षीय ढांचे, शैली, भाषाई सौंदर्य... व्यावसायिक दृष्टिकोण से थोडे बहुत परिवर्तन होते हैं। पर मूलतः अभिव्यक्ति के समय किसी भी लेखक के मन को निजी स्वार्थ छूता भी नहीं है।

अपने आस-पास छोटी-छोटी बातों में भी सौंदर्य का खजाना होता है। पर जिंदगी की भाग-दौड़ में हमारी कृत्रिमता उस खजाने को खो देती है। यंत्र बने हम रोजमर्रा की जिंदगी जी लेते हैं। यहीं कोई लेखक हमें पकड़कर, हमारे कान खींचकर अगर दिखा रहा है तो इससे अच्छा क्या है? हम बाजार में खडे हैं और चारों तरफ भीड़, शोर, जल्दबाजी शुरू है आवाजें एक-दूसरे में घूलमिल रही हैं पर इसी भीड़ में कहीं कोने में, रास्ते के किनार खडे होकर भीड़ के पैर, आवाज और चेहरों को देखना किसी सुंदर सपने से कम नहीं। पर आपके पास भीड़ से अलग होने की क्षमता होनी चाहिए। उसी तरिके से लेखक भीड़ का ही हिस्सा होता है पर उसके पास भीड़ से अलग कोने में, किनारे पर खडा होकर निरीक्षण की, परख करने की ताकत होती है। वह ईश्वर से प्राप्त समय-दर-समय और प्रखर और सूक्ष्म और धारधार बनती है और नव-नवीन साहित्यिक कृतियों को समाज के सामने सजा देती है। लेखकों द्वारा सजाएं कई कृतियों का मिठास भरा पक्वान दुनिया चाव से खाए, अपने जीवन को गति दें। जिस साहित्य से गति मिलेगी नहीं उसकी उपेक्षा ना करें। उपेक्षा किसी लेखक की हत्या हो सकती है। हत्या और खून के अपराध से बचने के लिए दूसरों की इज्जत-सम्मान करना बहुत जरूरी है। कोई चिल्लाकर आपको बार-बार बता रहा है तो सुनना भी कर्तव्य है। अपने घर में छोटा बच्चा भी अगर हमें कुछ बता रहा है और हम उसे अनसुना कर रहे हैं तो वह अपने मुंह को अपनी ओर खिंचकर, हाथ को पकड़कर, नजदीक आकर, पीठ पर चढ़कर, बालों को पकड़कर, साडी के पल्लू को पकड़कर... ध्यानाकर्षित करता है और अपनी बात हम तक पहुंचा देता है। वहीं इनोसंटभाव लेखक में है, समाज के कंधों पर खिलकर पोषित हो रहे हैं और सुनने वाले कई हैं तो लेखक की अंतर्प्रेरणाएं जागृत होती ही है और लिखा भी जाता है।
     
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Wednesday, May 29, 2013, 3:59 AM